Wednesday, 16 September 2015

351 -शिर्डी साईं बाबा के गुरु लाहड़ी महाशय ?

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बहुत समय पूर्व एक पुस्तक "पुराण पुरुष योगिराज श्री शयामचरण लाहड़ी "पढ़ने का सौभाग्य मिला था उसमे शिर्डी के साईं बाबा के गुरु के रूप में श्री श्यामाचरण लाहड़ी जी के होने की संभावना व्यक्त की गयी है। व्यक्तिगत रूप से मुझे भी इस मान्यता को स्वीकार करने का मन कर रहा है। लाहड़ी महाशय पर लिखी इस पुस्तक की प्रमाणकिता पर किंचित संदेह नहीं हे क्योंकि यह पुस्तक लाहड़ी जी के सुपौत्र श्री सत्यचंरण लाहड़ी  ने अपने दादा जी की हस्तलिखित डायरीयों के आधार पर डॉ अशोक कुमार चट्टोपाधयाय से लिखवाई है,वैसे इसका बांग्ला से मूल अनुवाद श्री छविनाथ मिश्र जी ने किया है।
आध्यात्मिक विषय में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए श्री लाहड़ी महाशय का नाम अपरचित नहीं होगा। लाहड़ी महाशय के गुरु महावतार बाबा जी थे (थे के स्थान पर हैं शब्द अधिक उपयुक्त है) जिनकी चर्चा योगानन्द परमहंस जी महाराज की बहुचर्चित,विश्वप्रसिद्ध पुस्तक "ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ अ योगी "में अपने दादा गुरु के रूप में की गयी है। महावतार बाबा जी को हमारे उत्तराखंड में हेड़ाखान बाबा जी  के रूप में स्मरण,पूजन और आदर के साथ स्वीकारा जाता है ,क्योंकि मेरा भी उत्तराखंड पैतृक स्थान रहा है और हेड़ाखान जी का दिव्य विग्रह पैतृक घर की हाल तक शोभा बढ़ाता रहा ,वर्तमान में वह वृन्दावन के लोहवन   स्थित आश्रम में है। अस्तु, इस पुस्तक के अनुसार लाहड़ी जी की डायरी में इस बात का उल्लेख है कि उन्होंने नानकपंथी साईं बाबा को क्रिया योग की दीक्षा दी थी। यूँ शिर्डी बाबा ने कभी अपने गुरु का नाम उजागर नहीं किया ,हाँ धर्म सम्बंधित विचारोँ और साधना पद्धिति की दृष्टि से दोनों में अवश्य मेल दिखाई देता है। साईं बाबा कबीर पंथी थे या नानक पंथी यह स्पष्ट नहीं है न ही ये की वे कहाँ के थे। दूसरी और लाहड़ी महाशय के जीवनकाल में भारतवर्ष में एकमात्र शिर्डी साईं बाबा का नाम मिलता है अन्य का नहीं। आशा है विज्ञ पाठक यदि इस पर अधिक प्रकाश डाल सकें तो सूचित करें। 

Sunday, 13 September 2015

350 - मुण्डक उपनिषद से (हिंदी दिवस पर )


गुरुवर अत्यंत विनत भाव से 
पूछता हूँ एक प्रश्न आपसे 
ज्ञान कौन सा है कहिये मुझसे
समस्त विश्व जान लूँ जिससे।
  


ओम ,परम पूज्यनीय आप हमारे  

 करते हैं प्रार्थना मिल हम सारे 
कान सुने हमारे जो शुभ हो
 देखें नेत्र वही जो शुभ हो
 यज्ञादि कर्म हमारे शुभ हों 
 दक्ष बनें,अंग-प्रत्यंग पुष्ट हों
जीवन अवधि योग पूर्ण हो
देव सभी तेज़ बुद्धि बलदायक हों 
सबके प्रति कल्याण भाव हो। 
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निः सीमिता के अनंत तट पर सर्वत्र 
यह संसार तो है एक कण मात्र। 
तो करो जरा ठीक से विचार 
कहाँ टिकता है "स्व" का सार। 
जन्म-मृत्यु,प्रकाश-अन्धकार 
दिन-रात,सत-असत का गुबार।
उत्कट द्वैध,जो अंशतः दृष्टिगोचर मात्र 
अंततः तिरोहित होता अक्षय ब्रह्म पात्र। 
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परमात्मा तो है सनातन,शुद्ध 
अंतर,बाह्य,सर्वत्र व्याप्त,बुद्ध। 
जीवन-मृत्यु दोनों से परे  
साकार-निराकार कौन भेद करे। 
असंख्य ब्रह्माण्ड उदरस्थ उसके 
निमिष में जन्म लेते,मरके। 
स्वांस-प्रच्छवास,इंद्री-मन हमारे 
पंच-तत्व के गुण विभाग सारे। 
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