कुदरत भी सलीका सीख रही बदलने का आम आदमी से। वैशाख,जेठ में ओला,पानी गजब बरस रहा है आसानी से।।
जो ज्यादा ही शफ़्फ़ाफ* बनके गीत गाते थे इंकलाब के। सर से पांव तक धंसे दिखते वही कीचड़ में बेईमानी से।।*उज्जवल
क्या-क्या दिखाए थे ख्वाब सुनहरे हमें भरी दोपहरी में। बेजा हरकतों से अपनी रुला रहे खून के आँसू सभी से।।
एतबार अब आप पर कोई करे तो कैसे करे जनाब। झूठ के पुलिंदे टपकते हैं आप की हरेक कहानी से।।
रोशनी में नहाता दिख रहा अलमस्त शीशमहल जो। बना है गरीब-गुरबा की जी-तोड़ पसीने की कमाई से।
मगर तुर्रा तो देखिए अभी ठसक वही है "उस्ताद" की। सब खांसना भूलकर हर बार हंसते हैं बड़ी ही बेशर्मी से।।
नलिनतारकेश @उस्ताद
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