गर्म मौसम के मिज़ाज,आजकल अजब-गजब हैं।
डर है गश खाकर गिर न जाएं,सूखे हमारे लब हैं।।
हमारी ही की गई,ये सारी कारिस्तानी है हुज़ूरे आला।
तो भला अब क्यों चीखते,बचाओ कहां हमारे रब हैं।।
हाथ पर हाथ धरे बस बैठे हुए,बेफिक्र बतकही कर रहे।
गर्मा रहे मिज़ाज ए मौसम पर,क्यों ख़ामोश बेसबब हैं।।
इल्जाम मढ़ना तो आसान है,हुकूमत पर कोई भी कभी।
जम्हूरियत बचाने पर क्यों नहीं,वोट डालने जाते सब हैं।।
चाहो या न चाहो,हालात बन रहे हैं,निर्जला एकादशी के।
आंखों का पानी तो छोड़ो,जलाशय भी सारे,सूखे अब हैं।।
राधा-किशन के करिश्मे,अब दिखाई देंगे कैसे "उस्ताद"।
बताइए तो जरा कितने महफूज़ रखे दरख़्ते कदम्ब* हैं।।
*श्री कृष्ण का प्रिय पेड़ जिस पर बैठ बांसुरी बजाते हैं
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