धौल मारकर पीछे से आकर लिपट गया।
मिलता है कोई आज भी दोस्त ऐसा क्या।।
रिश्तों की वो गज़ब गर्मजोशी क्या कहिए।
हिस्से का जो खाकर मेरा ही गरियाता रहा।।
उकसा के पहले खतरे में झौंक दिया उसने।
फिर बचाने की कवायद करता मुझे दिखा।।
किरदार कैसे-कैसे बनाए हैं उसने गज़ब के।
रकीब भी कभी कभार दिलदार बडा़ मिला।।
"उस्ताद" हो मगर क्या ख़ाक समझो उसे।
पारसा* से ज्यादा काफ़िर का खुदा हुआ।।*आस्तिक
नलिन "उस्ताद"
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