अब वो भी झूठ,लफ्फाजी का पैरोकार बन रहा है
ऑखिर नापाक हाथ का नमक रोज खाता रहा है।
ऑखों में उसकी सियार का बाल दिखता रहा है
इंसानियत का राग तो उसका बस एक शोशा रहा है।
यूं गड़े मुरदों को उखाड़ने का शौक जरा भी नहीं
मगर खुलेआम वो गुनाहों को अपने छुपाता रहा है।
कमॆ यज्ञ में आहुति तो चाहता है लीडर सभी की
चैम्बर में अकेला मगर चुपचाप नोट गिनता रहा है।
ठन्डा,लिजलिजा हाथ बढाता है वो मिलाने के लिए
जाने कैसा दस्तूरे ए दोस्ती का साथ निभा रहा है।
"उस्ताद" छोड़ो भी अपने जमाने के रुहानी किस्से
अब तो बेशमॆ चलन अय्याशी का आम डेरा रहा है।
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