घर के भीतर दहलीज कई बन गयी
लखन,राम की अलग रसोई हो गयी।
बूढ़े माँ बाप का सहारा अगला बने
भाइयो में हर रोज़ ये जंग हो गयी।
जाने कितने सपने संजोये थे आँख ने
शर्म से हकीकत मगर तार-तार हो गयी।
रुपये पैसे की हवस हद से इतनी बढ़ी
ज़मीर की अब सरेआम मौत हो गयी।
"उस्ताद"क्या सोच लिख रहे कलाम
हमाम में सब नंगों सी हालत हो गयी।
लखन,राम की अलग रसोई हो गयी।
बूढ़े माँ बाप का सहारा अगला बने
भाइयो में हर रोज़ ये जंग हो गयी।
जाने कितने सपने संजोये थे आँख ने
शर्म से हकीकत मगर तार-तार हो गयी।
रुपये पैसे की हवस हद से इतनी बढ़ी
ज़मीर की अब सरेआम मौत हो गयी।
"उस्ताद"क्या सोच लिख रहे कलाम
हमाम में सब नंगों सी हालत हो गयी।
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