बदल रहे हैं वो मिजाज अपने आहिस्ता-आहिस्ता।
कतरा के चलते हैं अब हमसे आहिस्ता-आहिस्ता।।
खिले गुल से मिलते थे जो कभी हर मोड़ हमको।
लबे पंखुरी समेटते दिख रहे आहिस्ता-आहिस्ता।।
जमाने की नई हवा लगती दिख रही है अब तो सबको।
बुजुर्गों से भी बदजुबानी करने लगे आहिस्ता-आहिस्ता।।
सावन में बादलों के मिजाज अलहदा अपना रंग दिखाते।
कहीं मूसलाधार तो कहीं बरसते बड़ेआहिस्ता-आहिस्ता।।
जाम पर जाम चढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ती कभी भी।
निगाहों से "उस्ताद" सांवली पीते आहिस्ता-आहिस्ता।।
@नलिनतारकेश
No comments:
Post a Comment