Tuesday 3 August 2021

372:गजल-झण्डे गाड़ती हैं बेटियाँ

पेशे खिदमत है हिन्दी कहावतों में ढली एक गजल।
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लो सावन में अंधे हो गए सुप्रीम हुजूर हमारे।
अहद* है दिखे रंगीन हर तरफ बस हरे नजारे।।*संकल्प 

सूप बोले तो बोले अब तो छन्नियां भी हैं बोलती।
हांडी ये अपनी काठ की चढ़ाना चाहते हैं बिचारे।।

लुटेरे उच्चके नेता हैं सब चट्टे-बट्टे एक थैली के।
दल-दल से हैं इनके रिश्ते चोर-चोर मौसेरे वाले।।

गधे को अंगूरी बाग की समझ होगी कहाँ से कहो तो। बता उसको मगर घोड़ा लगे हैं दौड़ाने में सारे के सारे।।

घर के भेदी ही ढहाते रहे हैं सोने की अयोध्या हमारी। सवाल तो ये है मगर कौन इनकी म्याऊँ की ठौर बांधे।।

हथेली पर जमती नहीं सरसों बगैर बहाए पसीना। मिलाकर हाथ चलना होगा हमको हर हाल प्यारे।।

घर का जोगना न रह जाए कहीं आन-गांव का सिद्ध योगी। 
"उस्ताद" वक्त पर लगे एक टांके भी मुस्तकबिल* जगाते।।*भविष्य 

@नलिनतारकेश

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