मेघ मल्हार
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घनन-घनन घन,गर्जन लागे।
उमड़-घुमड़ कर,बरसन लागे।।
हरी-भरी धरती मुस्काए।
जीव-जीव सब नर्तन लागे।।
उर अभिलाषा बहे वेग से।
संगम हो सरिता समुद्र से।।
कलकल-कलकल,ध्वनि हो रही।
बजती हो स्वर,जैसे सारंगी।।
सूखे पात,सुधा-रस पाते।
दादुर,मोर,पपीहा गाते।।
भजनानंदी हरि रिझाएं।
प्रीत-लाड़ से उन्हें बुलाएं।।
मंद,तार स्वर बूंदे टपकें।
नैन "नलिन" खिलके तब दमकें।।
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