365:गजल
अक्सर बारिश में खूब,खुद को भिगाता हूँ।
बनके छोटा बच्चा,बस मैं तो गुनगुनाता हूँ।।
फकीरों से झूमते निकलते हैं,बादलों के झुंड।
जो दिखें ऑगन में अपने,तो सर झुकाता हूँ।।
जानता हूँ रूठी बैठी है बरखा क्यों सावन-भादो में।
उजाड़े हैं गुलजार गुलशन,सजा उसकी ही पाता हूँ।।
बैठक से निकाल दरख़्त सारे,छत पर सजा दिए हैं।
गलबहियां दिला उन्हें सावन की,प्यास बुझाता हूँ।।
लब खोलता नहीं,वरना हर कोई जान लेगा।
तमगा ए "उस्ताद"लगा उल्लू बनाता हूँ।।
@नलिनतारकेश
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