लबों से निकले तल्ख अल्फाज,तीर से भेदते हैं गहरे।
खोला कीजिए जुबान हुजूर आप,बहुत संभलते हुए।।
बसाया घर जन्नत भी,कुछ वक्त ही मुफीद लगेगा।
बैरागी चलो बस बनके,हर गली,कूचे,शहर,गांव से।।
हवा ले तो आयेगी धर-पकड़कर,काले बादलों को।
जो मौज में आएं अगर अपनी,तभी दिखेंगे बरसते।।
लबे-शहर कहकहे भरता रहा जो शख्स धूम-धूम कर।
सुना है उसी उदास,तन्हा को लोग अब पागल बता रहे।।
"उस्ताद" पकड़ोगे कैसे सियासतदानों की नब्ज तुम।
एक कदम आगे तो कभी ये दस कदम पीछे हैं चलते।।
@नलिनतारकेश
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