समीकरण जिंदगी के क्या खाक सुलझायेगा आदमी।
हर गांठ खोलने में उसे बस और उलझायेगा आदमी।।
जोड़,घटाना,गुणा,भाग भला कब तक होगा मुमकिन।
लगाने से गणित बस खुद को ही भटकायेगा आदमी।।
लहरों की मानिंद बस बहते रहेगा जो यहाँ से वहाँ।
कभी ना कभी किनारा तो पा ही जाएगा आदमी।।
फकीरों सी मस्ती बहेगी जब कभी अपने भीतर।
कहो फिर भला कैसे ये चोला भरमायेगा आदमी।।
जिस्म मान खुद को तुझसे जुदा किया है यहाँ सबने।
रूह में बसे है रब "उस्ताद" ये समझाएगा आदमी।।
@नलिनतारकेश
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