कभी मारता है तो कभी पुचकारता है।
खुदा भी कैसे-कैसे हमें सुधारता है।।
हम फिर भी कहो ढीठ कहाँ कम ठहरे।
देख वो हरकतें हमारी सिर पीटता है।।
तकदीर के एक भरोसे बैठके शेखचिल्ली।
बिस्तर में बस लेट सपने रंगीन बुनता है।।
जमाने की हवा में जाने कैसा जहर घुल गया।
सच यहाँ अब कोई नहीं किसी की सुनता है।।
दावे तो बहुत हैं चांद-सितारे तोड़ लाने के।
असलियत में कौन,कहाँ खरा उतरता है।।
मिज़ाज इन बादलों का समझे भला कोई कैसे।
जेठ बरसे जो झूमके वहीं सावन भर रूठता है।।
हाथ पर हाथ धर यूँ न बैठिए "उस्ताद" जी।
खाली दिमाग कमबख्त बेवजह बहकता है।।
@नलिनतारकेश
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