भावों का पर वही,बहुमूल्य सृजन,भीतर में है करता।।
श्रृंगार भी कहो कहाँ कब तक,झुर्रियां रोक है सकता।
काल तो सदा ही निर्विकार,अपना प्रभाव है छोड़ता।।
मदहोश नित्य ये चपल चित्त,प्रकृति सा है बहता रहता।
पल में तोला,पल में माशा,बस इसका मिजाज बदलता।।
बुद्धिजीवियों का भरपूर सैलाब,जगह-जगह है दिखता।
जो वृक्ष की छाँह खड़े होकर भी,जड़ को काटता रहता।।
जीवन अपना रेत के जैसा,मुठ्ठी से बरबस है फिसलता।
विवेकवान बस वही एक जो,दोनों हाथ उलिचता रहता।।
@नलिनतारकेश
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