जरूरत ही बना लो तो हर चीज को रो लो।
नहीं तो बन के फकीर तुम कहीं भी सो लो।।
हवस है आदमी की जो बुझती ही नहीं कभी।
अरे नामुरादों दिमाग की खिड़कियाँ तो खोलो।।
करेगा यूँ तो खुदा ही इलाज दुश्मनों का सारे।
जरा लबों से तुम भी तो मगर इंकलाब बोलो।।
सुरों का सैलाब रहता है तुम्हारे ही भीतर।
लगाकर सुनो कान और मस्ती में डोलो।।
हो जाएं कलम के तुम्हारी सभी मुरीद।
गजल में "उस्ताद" कुछ नायाब रंग घोलो।।
नलिन "उस्ताद "
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