जगत का व्यवहार सदा रहा बड़ा अबूझ,समझ कहाँ आएगा।
हर पल,हर घड़ी बदलता प्रवाह कालचक्र,समझ कहाँ आएगा।।
स्थिर है यहाँ क्या कहो तो?, सदा जिसे तुम पालते-पोसते हो।
रेत की मानिन्द फिसलता सदा हाथ से,पकड़ कहाँ आएगा।।
नेह-प्रेम लौकिक जिसे मान स्थिर तुम,हर कदम हो बढ़ रहे।
बिछड़ा जो साथ जब भी कभी,फिर वो भला कहाँ आएगा।।
देह,वाणी,रूप भाव खिलें अनगिनत,कुछ देर बस पुष्पगुच्छ से।
कुम्हलाने लगे मगर जब शाख ही तो फिर वसंत कहाँ आएगा।।
मिला जीवन दिव्य जो यह हमें,न जाने कितने पुण्य प्रताप से।
व्यर्थ कर दिया जो माया-मोह तो,फिर पुनः कहाँ आएगा।।
नलिन @तारकेश।
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