उड़त अबीर गुलाल लाल भयो अंबर
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यह दुनिया रंग रंगीली है।न जाने कितनेअद्भुत और विलक्षण सब एक से बढ़कर एक रंग जो अपने में सभी संपूर्ण और अनूठे हैं यहां हमारे आस-पास बिखरे पड़े हैं।कोई किसी रंग का दीवाना है तो कोई किसी एक अलग रंग का लेकिन हैं सभी रंगों के मुरीद।रंगों का जादू सभी पर सिर चढ़कर बोलता है।कोई अपने रंगों पर ही फ़िदा है तो कोई दूसरों के रंगों पर मंत्रमुग्ध।कोई संगीत के रंगों में डूबा है तो कोई साहित्य कला के।कोई प्रकृति के नयनाभिराम विविध रंगों का चितेरा है तो कोई प्रभु के प्रेम रंग से अपने तन-मन की चादर रंग लेने को आतुर दिखता है।
प्रकृति और पुरुष का संवाद भी रंगों के माध्यम से सहज संभव हो जाता है।संभवतः इसी को ध्यान में रखते हुए और रंगों के प्रति अपने स्वाभाविक आकर्षण के चलते मानव ने रंगो के त्यौहार होली की परिकल्पना को मूर्त रुप दिया। शीघ्र ही एक सामाजिक और धार्मिक त्योहार के रूप में होली ने सबका दिल जीत लिया और भारत के प्रायः सभी प्रांतों में यह पूरे जोशो-खरोश से मनाया जाने लगा। होली के दिन जिनकी आपस में बड़ी से बड़ी दुश्मनी होती है वह भी रंगों के साथ मिलकर बह जाती है।फिर छोटी-मोटी नाराजगी और लड़ाई की तो भला क्या बिसात कि वह पास भी फटक सके।इस दिन नोक -झोंक तो जरूर होती है पर वह प्यार स्नेह के रंगों से सराबोर होती है और संबंधों में कोई हल्की दरार या खामी रही होती है तो वह भी इस से भर जाती है।आज के दिन जब व्यक्ति घर से बाहर होली खेलने के लिए निकलता है तो फिर वह यह नहीं देखता कि वह होली के लाल,पीले,हरे••••चटक रंगों को जिसके गले लगा गलबहियाॅ भर रहा है उसका वर्ण, जाति,मजहब क्या है? वह अमीर है या गरीब?शत्रु है या मित्र?वह तो बस रंगोत्सव के खुमार में होता है।अपना,पराया उसे कहां सूझता है।इस दिन तो वह अपने पास मौजूद सारे रंगों को दूसरे पर निछावर कर देना चाहता है और चाहता है दूसरों के रंगों से अपने तन मन को रंग लेना।अब कोई भेद नहीं रहता सब कोई एक रूप हो जाते हैं। रंगों के त्यौहार का यही वो रंग है जो उसे खास बनाता है।उसे हर दिल अजीज बनाता है। पूर्णिमा की रात्रि चलाई जाने वाली आग यज्ञवेदी में निहित अग्नी का प्रतीक है। वैदिक युग में यज्ञवेदी के समीप एक उदुंबर (गूलर) वृक्ष की टहनियाॅ गाड़ी जाती थीं क्योंकि गूलर का फल अत्यंत मीठा होता है।हरीशचंद्रोपाख्यान में कहा गया है कि जो निरंतर चलता रहता है,कर्म में निहित है उसे गूलर के फल खाने को मिलते हैं।चरन् वै मधु विंदेत,चरन्स्वादुमुदुम्बरम् (ऐतरेय ब्राह्मण) खेतों से आया नवीन अन्न इसी अग्नि में हवन करके प्रसाद लेने की परंपरा है। इस अन्न को होला कहते हैं।इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।होली की है यह अग्नी ही मानो हमारे संबंधों में किन्ही कारणों से उत्पन्न कटुता को स्वाहा उसे लील लेने का प्रतीक बनती है और "बीती ताहि बिसार दे आगे की सुधि ले" के साथ नई उष्मा नए उल्लास और रंगों से जीवन को रंगीन बनाने के लिए पूरी मस्ती से कदमताल कर उठती है।होली में दिखने वाली हंसी-ठिठोली का मूल प्राचीन ग्रंथों में उल्लिखित "अभीगर-अपगर-संवाद" में निहित है।विद्वानों के अनुसार अभीगर ब्राह्मणों को और अपगर शूद्रों को दर्शाता है जिनके बीच आक्षेप, हास्य -व्यंग,कटाक्ष चलते थे और यह सब पूरे दिल खोलकर हास-परिहास हेतु किया जाता था।इसी क्रम में लोग विभिन्न प्रकार की बोलियां खासतौ।र से ग्रामीण बोलियां बोलने का भी प्रदशॆन
लोग करते थे।यह तान्डय ब्राह्मण ग्रंथ से ज्ञात होता है।प्राचीन समय में ही इस दौरान हास-परिहास के साथ राष्ट्र रक्षा के लिए भी जनमानस को जागृत किया जाता था। इस हेतु यज्ञवेदी के चारों ओर शस्त्रास्त्र धारण किए राजपुरुष व सैनिक परिक्रमा करते थे।यह इसलिए भी उपयुक्त लगता है कि कहीं हम हंसी ठिठोली की रौ में बह अपने व अपने राष्ट्र की सुरक्षा को ही ना भूल बैठें।उत्सव और पर्वों का सामाजिक भौगोलिक व अन्य कारण से विकास होता रहता है यही कारण है कि होली जो मूलतः एक वैदिक
सोमयज्ञानुष्ठान था आगे चलकर भक्त प्रहलाद और उनकी बुआ होलिका के कथानक से जुड़ा,"नव-शस्येष्टि"(नई फसल हेतु किए जाने वाला अनुष्ठान)व "मदनोत्सव" से जुड़ा और इस प्रकार विविध रंग रंगीली परंपराओं को अपने में समाहित करते हुए जन-जन का लोकोत्सव बन गया ।
@ नलिन #तारकेश
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