जंगल कहो तो सब खत्म हो रहे।
दिलों में मगर बहुत घने हो रहे।।
जिनकी आवाज-ए-लर्जिश मचलते दिल रहे। पंछियों के कलरव ईद का चांद हो रहे।।
वीजा मिल रहा परदेश का बड़ी आसानी से। बच्चों के दिलों से मगर मां बाप दूर हो रहे।
बताओ कैसी इबादत में मशगूल हैं लोग आजकल।
सजदे में झुककर अपने ही देखो अब सब बुत हो रहे।।
लो चालीसवाॅ भी हो गया मगर रूह को चैन नहीं।
दिल लगाने पर उनसे अब तक सजायाफ्ता हो रहे।।
मरने तो आए ही हैं यहां हम सब दुनिया में। जी लें हम दिल खोल जब तलक नमाज़ी हो रहे।।
आशियाना हमने सजाया नहीं दिलफरेब दुनिया में कभी।
"उस्ताद" बात ये अलग है कि हरेक घर का नूर हम हो रहे।
@नलिन #तारकेश
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