Saturday 27 January 2018

गतांक से आगे:(भाग-4)#कालचक्र #कमॆ#कृपा

गतांक से आगे:(भाग-4)#कालचक्र #कमॆ#कृपा
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सर्वमान्य नैतिकता का तकाजा है कि कोई व्यक्ति किसी अन्य की वस्तु पर नजर न गड़ाए। खासतौर से अगर वह व्यक्तिगत गिफ्ट सा संवेदनशील मसला हो।पर स्वप्न से अभिभूत उस पर अपना कॉपीराइट मानते हुए मैंने इस बात को नजरअंदाज कर दिया था।यहाॅ प्रशंसा तो भाभी(मुग्धा)जी की करनी होगी जिन्होंने स्त्री स्वभाव के प्रचलित किस्सों के विपरीत इस तरह के स्वाभाविक मोह को सहज ही धराशाई कर दिया।हालांकि यह उस समय तो स्वप्न की भित्ती(दीवार)पर टिका एक अनुमान मात्र था।क्या पता मुझे किसी अन्य से मिलना हो? वैसे अक्सर सपने झूठे भी साबित होते रहते हैं(प्रख्यात साहित्यकार अमृता प्रीतम ने इस विषय पर 2-3 पुस्तकों में स्वतन्त्र रुप से लिखा है।आज स्वप्नविज्ञान के तथ्यात्मक  पहलुओं की खोज में देश-विदेश में अनुसंधान हो रहे हैं,उनकी चरचा फिर कभी )अपने हाथ में तो कुछ था नहीं पर अंतर्मन कहता था कि स्वप्न साकार होगा। अब उनके पार्टी से लौटने का इंतजार बेसब्री से था। भाभीजी जब लौटीं तो उनके जेहन से यह बात निकल चुकी थी। सपना याद दिलाया तो उन्होंने कहा कुछ मिला तो है।मेरी बैग में है देख लो। उसमें देखा तो एक साड़ी थी ।पर वह तो मेरे किसी मतलब की होती नहीं सो उपेक्षा से उसे देखा। पर उसी दृष्टि में एक छोटा सा पर्स भी किसी आभूषण विक्रेता के नाम वाला दिखाई दिया। उसे खोला तो उसमें एक डिब्बी दिखाई दी। इसमें एक कागज से लिपटे बेल-बूटों से सजे चांदी के चमक बिखेरते "चरनपीठ करुणानिधान के।" (जन जुग जामिक प्रजा प्रान के।।संपुट भरत सनेह रतन के। आखर  जुग जनु जीव जतन के।। 2/315/ 5-6 ) झाॅकते दिखे। उन्हें देख मेरे हर्ष का ठिकाना न था।मैंने "श्री चरण पादुका" सभी को दिखाई। सब की बड़ी सुखद प्रतिक्रिया आई, जो बहुत स्वाभाविक थी।भाभी जी ने नेताओं की तरह कोई गफलतबाजी,वादा निभाने में नहीं की और सहषॆ उन्हें मुझे सौंप दिया। करुणानिधान ने पहले स्वप्न संकेत से और फिर कुछ घंटों के भीतर ही वास्तविक रूप में अपने श्री चरणों का अवलम्बन देकर मुझे कृतकृत्य कर दिया।अब यह अलग विषय है कि इतना कुछ होने के बावजूद भी उस घटना के 14 वर्ष बाद भी मेरे अपने "रामजी" वनवास ही भोग रहे हैं।और मैं आजकल के नेताओं से अधिक प्रभावित हो अपने उस "पद-प्रभुत्व"में ही इठलाता फिर रहा हूं। कभी-कभी चुनाव आने पर नेता जैसे पूरे नाटक/अभिनय के साथ युद्ध स्तर पर सेवाभाव में जुटे दिखते हैं वैसे ही अपने अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने पर उनकी झाड़-पौंछ में कुछ देर को लग जाता हूॅ। लेकिन अपने "राम"को वनवास से लाने की कोई उत्कंठा या शीघ्रता फिलहाल दूर-दूर तक नहीं दिखती है।दरअसल इसके पीछे जो सत्कर्म किए जाने की भावना मूल प्रेरणा स्वरुप ईश्वर के द्वारा हम पर होती है उसे नजरअंदाज कर पूर्णरूपेण हम कृपा-याचक बन जाते हैं।यद्यपि इस तरह की प्रेरणा वह प्रत्येक को अलग-अलग रूपों में समय समय पर देता रहता है किंतु हम तो माया के लाउडस्पीकर( डीजे)से आने वाली धुनों पर बहरे हो नाचते-फिरते हैं।ऐसे कि अन्य कोई आवाज/ संकेत से प्राय: अनजान ही बने रहते हैं। वैसे इस मामले में कहूं तो थोड़ा अपने को सौभाग्यशाली मानता हूं कि वह बीच-बीच में अपने संकेतों/इशारों से मेरा ध्यान आकर्षित करता रहता है।ऐसी मेरे प्रति रुचि उसे क्यों है यह तो वह समझे पर इतना बुद्धिजीवी भी उसने बनाया नहीं है की उस पर जाॅच-आयोग बैठाने की सामथ्यॆ रख सकूॅ। वैसे भी वह कब बुद्धि की पकड़ में आता है।कभी लगता है भविष्य के स्वप्न/संकेत/अन्यान्य सिद्धियाँ आदि भी कभी-कभी वो बरगलाने या परीक्षा के लिए ही दे देता है। उसमें ज्यादा उलझना नहीं चाहिए।"मोको कहाॅ ढूंढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास रे" सा वो तो सहज ही निकटस्थ है।हाॅ अब जो मुझे ज्योतिष विद्या का अल्पज्ञान है सो भी सोचता हूं कि वह सिर्फ उसके संकेत/ विचारों को सरलता से समझने के लिए ही दिया गया है। पर यहां तो बात ही उल्टी हुई। खुद तो समझे नहीं पर दूसरों के प्रति ग्रह संकेतों के समझावनलाल बन बैठे।अजीब विडंबना है।लोग भी बौराए हैं। मेरे हाल देखते-भालते,समझते-बुझते भी(खैर बुबुक्षम् किम् न करोति)वो जो मेरे इस क्रियाकलाप से परिचित हैं (वैसे स्वनामधन्य का ज्योतिष परामर्शदाता वाला बोर्ड,खुद ही लगाया है घर पर)भी आ जाते हैं।ग्रहों की दुरूह,वक्री चालों को समझने,शुभ गति देने।और उससे भी मजे की बात प्राय: बेवजह की सराहना/आशीष/स्नेह भी लाद जाते हैं। इसमें अम्मा जी (मेरी माता जी)कुमाॅऊनी में व्यंग भी करती थीं। खासतौर से जब कोई अपने विवाह या अपने बाल-बच्चों/पारिवारिक सदस्यों के विवाह के बारे में मंत्रणा/राय लेने आता था,ग्रहों के संदर्भ में।वो कहती थीं "शिवजी आपूणे उतड़ छन ऊ के तुम्हर भल कर सकनी"!।यहां उनका आशय होता था कि जब यह खुद अविवाहित है तो तुम्हारे या अन्य के विवाह हेतु क्या ज्ञान दे सकता है। वैसे ही जैसे नारद के प्रति सप्तर्षियों ने देवी उमा को समझाया था "सुनत बचन बिहसे रिषय
गिरीसंभव तव देह। नारद कर उपदेसु सुनि कहहु बसेउ किसु गेह।।"(पार्वती जी की बात सुनते ही ऋषि लोग हंस पड़े और बोले- तुम्हारा शरीर पर्वत से ही तो उत्पन्न हुआ है भला कहो तो नारद का उपदेश सुनकर आज तक किसका घर बसा है ? 1/78) क्रमशः

@नलिन #तारकेश (26/1/2018)

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