प्राकृतिक चिकित्सा:सरल सस्ती चिकित्सा
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क्षिति,जल,पावक,गगन,समीरा।पंच तत्व ते अधम शरीरा।।
हमारे शरीर का निर्माण मिट्टी,पानी,अग्नि,
आकाश,वायु इन पांच तत्वों से होता है ऐसी मान्यता रही है। किन्ही कारणों से जब यह संतुलन बिगड़ने लगता है तो शरीर अस्वस्थ हो जाता है।लेकिन इन तत्वों को पुनः सन्तुलित करके काया को रोग मुक्त किया जा सकता है और वह भी बड़ी सरलता,सहजता से बड़े सस्ते में बिना किसी साइड इफेक्ट के।
प्राकृतिक चिकित्सक,जुस्सावाला जे•एम•
अपनी पुस्तक"द की टू नेचर क्योर"में लिखते हैं,'प्राकृतिक चिकित्सा हवा,प्रकाश,जल,ताप तथा अन्य प्राकृतिक तरीकों एवं पद्धतियों द्वारा किसी भी मानव रोग,कष्ट,चोट,विकृति, किसी भी शारीरिक रासायनिक या मानसिक दशा के निदान उपचार एवं उपयोग की सलाह देने की औषधि शास्त्र की एक व्यवस्था है"।दरअसल प्राकृतिक चिकित्सा और कुछ नहीं प्रकृति की आधारभूत विशेषताओं से लाभ उठाने की एक पद्धति है।प्रकृति अपने आप में स्वयं एक चिकित्सक है बस हमें अपनी तरफ से उसके कार्य में सहयोग देना होता है। प्रकृति तो शरीर से नियमित रूप में मल, दूषित पदार्थ तथा विषैले तत्वों को निकालती है लेकिन जब यह हमारे शरीर में अप्राकृतिक जीवन शैली, भोजन आदि के कारण जरूरत से ज्यादा एकत्रित हो जाता है तो यह रोग के रूप में उभरकर सामने आ जाता है।
प्राकृतिक चिकित्सा की विशेषता है कि यह रोग को शत्रु नहीं मित्र मानती है और उसके लक्षणों को दबाकर तात्कालिक लाभ देने के बजाय पूरे शरीर की चिकित्सा करती है और विजातीय पदार्थ या मल को बाहर निकालने में शरीर की प्राकृतिक तरीके से मदद करती है। वस्तुतः प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा पद्धति न होकर एक जीवन पद्धति है जिसका अनुसरण कर व्यक्ति स्वस्थ सुखी तथा प्रसन्न रह सकता है।प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा न केवल सामान्य अपितु जटिल रोगों का उपचार भी संभव है।वैज्ञानिक एवं चिकित्सीय दोनों स्तर पर आज प्रमाणित हो गया है कि यह एक अत्यंत सफल चिकित्सा पद्धति है।आवश्यकता है तो पूरे मन से,ध्यान के साथ इसके परिणाम को देखा जाए क्योंकि यह शरीर को पूरी तरह से निरोग करती है। अतः सामान्यतः कुछ अधिक वक्त लग सकता है।
हिस्ट्री ऑफ़ मेडिसिन एवं एशियाटिक, सन 1805 में प्रकाशित पुस्तक में लिखा है कि आयुर्वेदिक औषधियों का प्रचार कायॆ सबसे पहले भारत में हुआ। ईसा से 400 वर्ष पूर्व ग्रीस के हिपोक्रेटस को प्राकृतिक चिकित्सा का जनक माना जाता है।प्लिनी
के अनुसार पांचवी शताब्दी में रोम में जल स्नान रोग उपचार का महत्पूर्ण तरीका था। मध्यकाल में अरब में भी जल चिकित्सा लोकप्रिय थी। वर्ष 1675 में प्रकाशित पुस्तक"द यूज़ ऑफ आइस,ऑफ स्नो एंड ऑफ कोल्ड" में एम•बारा ने जल उपचार की अनेक तकनीकों का वर्णन किया है।वर्ष 1697 सर जॉन फ्लोयर ने "हिस्ट्री ऑफ़ कोल्ड वेदिंग"पुस्तक में रोगी को गीली चादर से लपेट कर कंबल से ढकने के बाद जब पसीना अच्छी तरह से निकल जाए तब स्नान कराने की बात लिखी है। इससे रोगी रोगमुक्त होता था।जर्मनी के लूइस कूने में जो 20 वर्ष की आयु में फेफड़े पेट तथा मस्तिष्क के रोगी हो गए थे प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा न केवल स्वयं स्वस्थ हुए बल्कि प्राकृतिक चिकित्सा के प्रबल समर्थक बन इसका व्यापक प्रचार-प्रसार करने में आजीवन लगे रहे।भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। वैदिक कालीन ग्रन्थों,बौद्ध ग्रन्थों आदि में जल,मिट्टी,वायु द्वारा स्वास्थ्य लाभ की बात बतलाई गई है ।सिंधु घाटी सभ्यता में ठंडे गर्म जल की सुविधा वाले सार्वजनिक स्नानागारों से ज्ञात होता है कि जल चिकित्सा उस समय महत्वपूर्ण स्थान रखती थी।चरक संहिता में इस तरह के अनेक प्रयोगों की चर्चा है। वर्तमान शताब्दी में महात्मा गांधी ने प्राकृतिक चिकित्सा को भारत में नया जीवन दिया।उनके प्रयासों से प्रभावित अनेक लोगों ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किए।भारत सरकार के स्तर पर इसके प्रचार प्रसार हेतु "केंद्रीय योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा अनुसंधान परिषद" नामक पंजीकृत संस्था के रूप में 30 मार्च 1978 को इसकी स्थापना हुई ।
प्राकृतिक चिकित्सा में प्राकृतिक साधनों एवं स्रोतों का उपयोग व्यक्ति को निरोगी एवं स्वस्थ बनाने के लिए किया जाता है। इस पद्धति का यह विश्वास है कि व्यक्ति प्रकृति का अभिन्न अंग है तथा उसी से उसका निर्माण हुआ है। इसमें पंचतत्व के माध्यम से रोग को दूर किया जाता है। यह पद्धति शरीर में एकत्रित हुए विजातीय तत्वों को बाहर निकालती है। तंत्रिकाओं, धमनियों तथा रक्त प्रवाह में उत्पन्न गतिरोधों को दूर करती है। अंगों को अतिरिक्त शक्ति प्रदान करती है। स्नायु संस्थान को मजबूत बनाती है और शरीर में जिन तत्वों की कमी होती है उनको पूरा करती है। प्राकृतिक चिकित्सा में उपयोगी पंच महाभूत तत्व के माध्यम से विभिन्न प्रकार के रोगों की चिकित्सा की जाती है।
पृथ्वी : भोजन जो हमारे शरीर को पुष्ट करता है पृथ्वी में ही पैदा होता है ।विविध प्रकार के फल ,फूल ,अनाज ,पशुओं का चारा और उनसे मिलने वाले दूध ,दही मक्खन इस की ही देन है ।मिट्टी में अनेक गुण होते हैं ।इसमें सर्दी-गर्मी रोकने की क्षमता होती है। मिट्टी का लेप लगाने से मिट्टी ,रोग ग्रस्त क्षेत्र में जमा विष पदार्थों को सोख कर समाप्त कर देती है।इस हेतु सूखी,साफ,गहराई से निकाली गई मिट्टी उपयोगी होती है। कुछ दिन धूप में रखने से पुरानी मिट्टी को पुनः से उपयोग में ला सकते हैं।
विधि : अंग के जिस भाग में तकलीफ हो वहां मिट्टी का आधा इंच मोटा लेप लगाएं और गीले, सूती कपड़े से ढक दें।जब मिट्टी सूख जाए तब उसे निकालकर उस स्थान को साफ कर लें। रोग के हिसाब से इसका लेप दो-तीन दिन या अधिक लगाया जा सकता है ।वैसे भी इस विधि का कोई साइड इफेक्ट नहीं होता है उल्टे लाभ ही मिलता है अतः आप इसे बेखौफ प्रयोग में ला सकते हैं। मिट्टी को लगाने से पहले उसे पानी में दो-तीन घंटा भिगोकर रखें तो अधिक बेहतर रहेगा। वहीं जल्दी लाभ हेतु गर्म पानी में इस लेप को तैयार कर सकते हैं।लेप बहुत गीला भी नहीं होना चाहिए कि वह बहे वहीं बहुत सूखा भी ना हो जो फौरन ही झड़ने लगे।
जल : जल जो जीवन का आधार है विभिन्न प्रकार से विविध रोगों के उपचार में काम आता है।हमारे शरीर में लगभग 70% जल है।अतः जल की उपयोगिता स्वयं सिद्ध है।स्पाइनल बाथ,हिप बाथ, स्टीम बाथ,आमॆ एवं फुट बाथ आदि द्वारा तनाव,अवसाद,कब्ज,अपच,सूजन,जकड़न खिंचाव जैसे रोगों का आसानी से इलाज हो सकता है।ठंडे जल और उष्ण जल का बारी-बारी से एक निश्चित अवधि तक प्रयोग किए जाने पर विविध रोगों से छुटकारा मिल जाता है। शरीर में अधिक दाह,जलन में बफॆ (जल की ठोस अवस्था) स्वाभाविक रूप से शीतलता देती है। ठंडे पानी की पट्टी भी तेज ज्वर में राहत देती है। वैसे भी जल के सेवन से शरीर में जमा हो रहे हैं दूषित रोग कारक पदार्थ बाहर निकालना आसान होता है। अतःडेढ से ढाई लीटर पानी रोज पीना स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता है।सुबह उठते ही निराहार जल का (रात्रि में तांबे के पात्र में रख कर)अधिकाधिक सेवन उपयोगी रहता है।
अग्नी : यह प्राण तत्व या कहें आंतरिक ऊर्जा की वृद्धि में सहायक है।प्राकृतिक चिकित्सा में सूर्य स्नान (सन बाथ) व सूर्य किरणों द्वारा जल/तेल को औषधि गुण युक्त बनाकर चिकित्सा की जाती है।सूर्य से विटामिन डी प्राप्त होता ही है साथ ही स्नायु दुर्बलता भी दूर होती है।हीमोग्लोबिन की मात्रा बढ़ती है और जीवनी शक्ति बढ़ती है।
वायु : बिना वायु के एक क्षण भी जीवन जीना संभव नहीं है। यह हम सभी जानते हैं। श्वांस-प्रश्वास को सही ढंग से लिए जाने से हम अधिक बेहतर स्वस्थ जीवन जी सकते हैं।पवन स्नान(एयर बाथ)अर्थात वायु सेवन करना इस हेतु उपयोगी है।प्रातः काल 3 से 4 किलोमीटर टहलने से शरीर के सभी अंगो व मांसपेशियों की कसरत हो जाती है।घास पर नंगे पैर चलना अधिक फायदेमंद है।खेलते समय सामान्य से अधिक तेजी से चलें और गहरी सांस लें तो शरीर की भीतरी,बाहरी सफाई और त्वचा कोमल होती है।वहीं रक्त शुद्ध और फेफड़े मजबूत होते हैं।नियमित प्राणायाम करना भी वायु चिकित्सा का एक प्रकार है। आकाश : पांच तत्वों में यह एक महत्वपूर्ण तत्व है।शरीर में कंठ,उदर,हृदय,कटि,सिर इसके विशिष्ट स्थान हैं।आकाश तत्व का आशय है रिक्त स्थान।जब यह रिक्त स्थान विजातीय तत्वों से भर जाता है तो व्यक्ति रोगी होने लगता है।अतः इस चिकित्सा में रोगी को उपवास की सलाह दी जाती है। प्राकृतिक चिकित्सा में उपवास की तैयारी, उपवास तोड़ने के नियमों पर गंभीरता से अमल कराया जाता है। उपवास के अनेक प्रकार हैं जैसे एकाहार उपवास,रस उपवास,फल उपवास, लघु उपवास,लंबे उपवास आदि।लंबे उपवास योग्य चिकित्सक की देखरेख में ही होने चाहिए।
इस प्रकार से उपरोक्त पंच तत्वों के माध्यम से की जाने वाली चिकित्सा शरीर को स्वस्थ एवं निरोग बनाती है।प्राकृतिक चिकित्सा में आहार पर भी बहुत अधिक ध्यान दिया जाता है।हमारे खान-पान में शरीर की आवश्यकता अनुरूप कौन से पौष्टिक पदार्थ सम्मिलित हों इसको "आहार चिकित्सा" द्वारा जाना जा सकता है। "मसाज या मालिश","चुंबक चिकित्सा", "मंत्र चिकित्सा" आदि अनेक विधाएं प्राकृतिक चिकित्सा के अंतर्गत आती हैं।इनके माध्यम से हम प्रकृति में नैसर्गिक रुप से विद्यमान "स्वस्थ" करने की शक्ति को अपने इस्तेमाल में बखूबी ला सकते हैं और वह भी बहुत सरलता से बिना किसी ज्यादा तामझाम के ।इस चिकित्सा की सबसे बड़ी खासियत है कि इसका कोई साइड इफेक्ट नहीं है।वहीं यह आम आदमी की जेब पर भी भारी नहीं पड़ती है। कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्राकृतिक चिकित्सा सर्वाधिक उपयोगी चिकित्सा विधि है और इसका कोई सानी नहीं है।आइए हम कोशिश करें कि प्रकृति के साथ जुड़कर हम अपना जीवन अधिक स्वस्थ और खुशहाल बनाएं।
@नलिन #तारकेश
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