Tuesday 23 January 2018

#रामलीला की व्यापकता

रामलीला की व्यापकता
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राम सकल नामन्ह ते अधिका।
होउ नाथ अघ खग गन बधिका।।

भक्त महर्षि नारद राम जी से उनके सभी नामों में से राम नाम के श्रेष्ठतम होने का आशीर्वाद मांगते हैं जिससे पाप रूपी पक्षियों के समूह के लिए यह  वधिक के समान हो। रामजी भक्तवत्सल होने के नाते सहज ही यह अनुरोध स्वीकार कर लेते हैं। सो राम नाम अगर राम के साकेतवासी होने के हजारों वर्षों बाद भी जन्म से लेकर मरण तक हर पल,हर श्वास हमारे साथ चलता हो तो आश्चर्य कैसा। वैसे अगर थोड़ी मानवीय मूल्य से भी देखें तो राम का व्यक्तित्व उनकी चरित्र लीला इतनी मर्यादित,मनमोहक और विलक्षण है कि वह बच्चे-बच्चे की जुबान पर बड़ी सरलता से कंठस्थ हो जाती है।
राम जो विष्णु भगवान के सातवें अवतार के रूप में जाने जाते हैं हमारी संस्कृति के आदर्श ही नहीं अपितु मानवता के संरक्षक भी हैं। दरअसल " राम " समस्त सद्गुणों के पुंजीभूत व्यक्तित्व का ही नाम है।राम विश्व इतिहास के शिखर महापुरुष हैं।डॉक्टर राम मनोहर लोहिया जैसे प्रख्यात समाजवादी चिंतक के अनुसार "राम जैसा व्यक्तित्व न इतिहास में मिलता है न कल्पना में "
ऐसे मर्यादा पुरुषोत्तम जननायक श्री राम की लीलाओं का मंचन का काल ऐतिहासिक रूप से 1600 ईस्वी के लगभग माना जाता है जो कि श्री रामचरितमानस के रचयिता संत तुलसीदास जी के अथक परिश्रम का परिणाम है।उन्होंने काशी से इसकी शुरुआत की थी जिसमें नगरवासियों के सहयोग द्वारा रामलीला के पात्रों का अभिनय किया जाना शुरू हुआ।कुछ विद्वानों के अनुसार 1200-1500 ई. के मध्य रामलीला का मंचन प्रथम बार हुआ था।जनश्रुति है कि अकबर ने भी इसे देखने में अपनी रुचि दिखाई थी। धीरे-धीरे रामलीला की लोकप्रियता में लगातार इजाफा हुआ और गली-मोहल्लों, शहरों में इसको विविध प्रकार की भव्यता प्रदान करते हुए मंचित किया जाने लगा।दरअसल उसकी लोकप्रियता के पीछे रामचरितमानस ग्रंथ की भाषा का "जन-भाषा"में होना एक प्रमुख कारण माना जा सकता है।जिससे स्थानीय लोगों को इस कथा से अपने को जोड़ते हुए इसका अभिनय करने में खास दिक्कत का सामना नहीं करना पड़ा होगा।दूसरे इस ग्रंथि की संपूर्ण पटकथा में स्वाभाविक रूप से संगीत रस का सुंदर समन्वय है जो कणॆप्रिय होने से इसे ह्दयग्राही बनाने में अत्यंत सहायक रहा। उत्तर भारत की अधिकांश रामलीलाएं प्रायः शारदीय नवरात्रि के दौरान खेली जाती हैं व दशहरे के दिन इनका समापन रावण वध से होता है।रामलीला में संवाद अदायगी पारंपरिक तरीके से मुख्यतः अवधी भाषा को आधार बनाकर होती है।कहीं-कहीं पर खड़ी बोली या स्थानीय बोली को वरीयता दी जाती है।मुक्ताकाशी (खुले आसमान के नीचे) मंचित की जाने वाली रामलीला मैदान में रामलीला कमेटी द्वारा स्थानीय लोगों द्वारा दिए चंदे से चलती है। यह ब्रज,मथुरा,वृंदावन जैसे क्षेत्रों में होने वाली रासलीला जैसी
लोक कला साथ ही गढ़वाल की पांडव- लीला(महाभारत के पात्रों पर आधारित)व कर्नाटक के यक्षगान से भी मिलती-जुलती लगती है।
आज देश के अधिकांश शहरों में रामलीला का आयोजन पूरी भव्यता, उत्साह और उल्लास के साथ किया जाता है ।एक ही शहर के अनेक हिस्सों,मोहल्लों में पूरे जोश के साथ रामलीला के मंचन की तैयारियां काफी पहले से शुरू हो जाती हैं। राम, सीता, रावण,हनुमान,भरत,लक्ष्मण,परशुराम, विभीषण जैसे अनेक पात्र अपने -अपने अभिनय में जान देने के लिए भरपूर पसीना बहाते हैं।सबसे रोचक बात है कि अधिकांश रामलीला के पात्र परिपक्व कलाकार न हो नौसिखिए होते हैं।लेकिन अपनी भावपूर्ण श्रद्धा से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देने में सफल रहते हैं।
यूनेस्को की वर्ष 2008 की रिपोर्ट अनुसार प्रतिनिधि रामलीलाओं में अयोध्या,रामनगर,वाराणसी,वृंदावन,अल्मोड़ा
सतना और मधुबनी का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है। चित्रकूट (मध्य प्रदेश )में महाशिवरात्रि से 5 दिन चलने वाली रामलीला में भरत मिलाप का चित्र अत्यंत भावनात्मक जुड़ाव के साथ किया जाता है। वहीं आगरा में राम बारात की रोचक परंपरा है।जिसमें शहर के कुछ प्रमुख स्थानों से गुजरती राम बारात भक्तों के हृदय को छू जाती है और उस में सम्मिलित हो वह अपने को धन्य समझते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में अनेक स्थानों पर रामलीला का आयोजन होता है ।इसमें सबसे प्राचीन एतिहासिक लाल किले के पास होने वाली रामलीला मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के समय से प्रारंभ मानी जाती है।पहली बार वर्ष 2004 में लव कुश रामलीला कमेटी द्वारा आयोजित रामलीला का सौ(100)देशों में प्रसारण हुआ था।वहीं काशी स्थित रामनगर में प्रतिवर्ष आयोजित होने वाली रामलीला का आयोजन पूरी भव्यता से होता है।इसकी शुरुआत वर्ष 1830 में काशी नरेश महाराज उदित नारायण सिंह ने की जिसे समय के साथ बनारस के राजघराने के समर्थन द्वारा व्यापक तरीके से मनाया जाने लगा।रामनगर की रामलीला के आकर्षण से लाखों लोग बंधे हैं। इस रामलीला की खासियत है कि यह दुनिया में पूरे 1 माह तक खेली जाती है ।अशोक वाटिका ,जनकपुरी ,पंचवटी,लंका आदि रामलीला से जुड़े प्रसंग वाले स्थानों के स्थाई, अस्थाई सेट बनाकर लगाए जाते हैं।इन दिनों पूरा रामनगर रामलीला का खुला आकाशीय मंच बन राममय हो जाता है।दर्शक अपनेसाथ रामचरितमानस की प्रति लेकर प्रसंग अनुरूप होने वाली लीलास्थली में पहुंचकर पात्र के संवाद अनुरूप दोहा, चौपाइयों का पाठ करते चलते हैं।प्रत्येक दिन की लीला आरती के साथ समाप्त होती है।अन्तिम दिन रावण वध के साथ यह मनमोहक रामलीला विराम लेती है।इसे देखने लाखों लाख दर्शक देश-विदेश से जुड़ते हैं। वही लखनऊ से लगभग 20 किलोमीटर दूर बख्शी का तालाब में 1972 से मंचित होने वाली रामलीला अपने आप में अनूठी है क्योंकि यहां रामलीला के अधिकांश मुख्य पात्र मुस्लिम समुदाय के लोगों द्वारा निभाए जाते हैं। दशहरे के दिन से 4 दिन तक खेली जाने वाली यह रामलीला सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है।जिसके रेडियो नाट्य रूपांतरण को वर्ष 2000 में सांप्रदायिक सौहार्द पुरस्कार दिया गया।
भारत से बाहर के देशों में अपनी-अपनी राम कथा है।यह बाल्मीकी या तुलसी की रामायण से कुछ भिन्न है पर राम कथा का मंचन यहाॅ भी भरपूर लोकप्रिय है। म्यनमार में "योकथेप्वे" पुत्तलिका नाट्य है जिसमें राम कथा का मंचन किया जाता है। जाटग्यो में रामकथा की प्रस्तुति मुखौटा पहनकर करने की परंपरा है।"यामाप्वे" का प्रदर्शन बर्मा में छह भागों में धनुष यज्ञ से लेकर रावण के प्रणय निवेदन चित्रण तक रहता है। कंबोडिया में लखन खाच  बोरान,नृत्य-नाट्य रामलीला है जिसका मंचन नारी पात्रों द्वारा किया जाता है।वहीं नांगशेक में चमॆपुतलियों द्वारा रामायण कथा प्रस्तुत की जाती है।
हाल ही में कुछ वर्षों पूर्व दूरदर्शन ने रामकथा की लीला रामायण को रामानंद सागर के निर्देशन में प्रस्तुत कर अपार ख्याती बटोरी थी।जब यह सीरियल दूरदर्शन पर दिखाया जाता था तो सुबह-सुबह सड़कों पर गहन सन्नाटा छा जाता था। उस समय जनता जनार्दन जाति, संप्रदाय,वगॆ की संकीणॆ चारदीवारी से परे लोकनायक राम की चरित्रगाथा में भावपूणॆ ढंग से तल्लीन हो जाने में अपने जीवन का सौभाग्य समझती थी। मायानगरी या बाॅलीवुड अपनी शुरुआत से ही राम कथा को फिल्मांकन का हिस्सा बनाता रहा है।अनेक लोकप्रिय फिल्में रामकथा पर तो बनी ही हैं कई आधुनिक फिल्मों में भी "रामलीला"के मंचन को फिल्म का महत्वपूर्ण हिस्सा बनाया गया है। भगवान राम की आदर्श लीला के इस जन कल्याणकारी स्वरूप को देखते हुए यूनेस्को ने वर्ष 2005 में रामलीला की परंपरा को "मानवता की मौखिक एवं अमूर्त धरोहर" के रूप में स्वीकारा है ।दरअसल राम का संपूर्ण जीवन जन-जन के हृदय में लोकमंगल स्वरूप को चेतना देने वाली अमूल्य निधि है। जन्म-मरण सुख दुख
आसक्ती-विरक्ति जीवन के सभी पड़ावों में देश,काल,धर्म के प्राचीरें लाॅधकर राम कथा मंदाकिनी अपने पुनीत स्पर्श से मानवता को बार-बार जीवनदान देने में पूर्ण समर्थ रही है।
     ।।श्री राम जय राम जय जय राम।।

@नलिन #तारकेश

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