Wednesday 24 January 2018

गतांक से आगे:भाग(2)#कालचक्र #कमॆ #कृपा

हमारे ग्रंथों में कुंभ में स्नान की बड़ी महिमा बताई गई है।कुंभ का इतिहास हजारों वर्ष पुराना है।संभवतः पूवॆ मे मैंने कहीं पढ़ा था कि लगभग 3 साढे 3 हजार ईसा पूर्व प्रयाग में इसके आयोजन का उल्लेख मिलता है।वैसे चीनी यात्री ह्वेनसांग ने 629 से 645 साल तक अपनी भारत यात्रा के दौरान इसका वर्णन काफी विस्तार से किया है।उस समय महान हर्षवर्धन का शासन था।कुंभ को व्यवस्थित रूप देने में आदि गुरु शंकराचार्य जी की भूमिका बताई जाती है।आप इसे प्रकृति के खुले आंगन में आयोजित होने वाली सर्वाधिक विशाल धर्म-संसद भी कह सकते हैं। पुराणों में कहा गया है कि सौ बार गंगा जी में स्नान का जो फल है वह फल प्रयाग में एक बार के स्नान से ही प्राप्त हो जाता है।भारत में जिस समय इस्लामी आतंक का दौर चल रहा था उस दौरान स्वामी रामानंद जी ने संतो को शस्त्र प्रशिक्षण देकर सैन्य शक्ति के रूप में खड़ा किया था जिससे वो धर्म रक्षा हेतु शास्त्र के साथ शस्त्र भी उठा सकें।ये सभी अखाड़े देशभर से कुंभ-स्थल में पहुंचते हैं।जैसे: जूना अखाड़ा,निरंजनी अखाड़ा,दिगंबर अखाड़ा आदि।
जैसा हम सब जानते हैं प्राचीन सभ्यताएं नदी के तट पर ही अपनी आधारभूत आवश्यकताओं की सहज उपलब्धता के चलते पनप सकीं।सो वहां उत्साह और उल्लास के इस प्रकार के विशाल आयोजन स्वाभाविक भी हैं।प्राणदायी सूर्यदेव,सरिता, उपजाऊ विस्तृत किनारे जो खाद्यान्नों की गारंटी देते हैं भला क्यों ना मन-मयूर को किलोल का, क्रीडा का,नृत्य का अवसर देते। सूर्यदेव प्रकाश के सवॆप्रमुख कारण होने से उनके द्वारा हमारी पृथ्वी पर उपकारों की सीमा नहीं है।तो मुझे लगता है कुंभोत्सव असल में प्रकाशोत्सव ही है जो हमें अज्ञानता के अंधेरे से उजाले की दुनिया में ले जाने के लिए सदैव कटिबद्ध रहा है।ज्योतिष में सूर्य देव को समस्त ग्रहों का राजा,जगतात्मा,नेत्र, स्वाभिमान/अहम,पिता आदि का कारक कहा गया है। सूर्य के प्रति हम सब का आदर भाव उनके हमारे प्रति उपकार के चलते स्वाभाविक है।मेरे लिए तो इसलिए भी अधिक गहरा है क्योंकि नलिन(कमल)और सूर्य का रिश्ता खास है। कमल हमारी आध्यात्मिक विरासत का प्रतीक चिन्ह है और सूर्य हमारी अपनी आत्मिक पहचान का।सो दोनों की जुगलबंदी कमाल कर सकती है। वैसे भी आपको अपने नाम में इंद्रधनुषी रंग भरने के लिए सदा प्रस्तुत रहना चाहिए।सूर्य देव की प्रार्थना,अभ्यर्थना विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं में सहजता से खोजी जा सकती है। सूर्य को जल देने की परंपरा भारत देश के लगभग सभी प्रदेशों में गहन आस्था के साथ निभाई जाती है।गायत्री मंत्र जो प्रखर प्रकाश, ऊर्जा,उष्मा और आत्मिक बल को अभिव्यक्त करता है सूर्य देव को ही समर्पित है।मेरी जन्म पत्रिका में अपनी उच्चस्थ राशि मेष में होने से सूर्य देव मेरे प्रति कृपालु रहे हैं। यूॅ राहुग्रस्त होने से वो अपने स्वाभाविक तेजस्विता को इस कारण से प्रगट करने में संकोची भी रहे हैं।तथापि इस हेतु मुझमें आन्तरिक सुधार लाने के निमित्त आपने बीच-बीच में कुछ नए रास्ते भी सुझाए हैं। वर्ष 1994 में मुझे इसका
अनुभव तब हुआ जब उन्हीं की प्रेरणा से मेरे नाम से एक मोटा लिफाफा डाक द्वारा घर पर भेजा गया।भेजने वाले का नाम"मार्तण्ड" लिखा था। मार्तण्ड सूर्यदेव का ही एक नाम है।लेकिन नाम के अतिरिक्त उस लिफाफे में अन्य जानकारी यथा प्रेषक का पता और ना ही कोई व्यक्तिगत संबोधन भीतर कहीं नहीं मिला। उसमें आठ,ए फोर साइज के पन्नों में सुंदर हस्तलेख में श्रीआदित्यहृदय स्त्रोत,सम्पूणॆ लिखा था।श्रीआदित्यहृदय स्त्रोत इतना विस्तार में मैंने कभी पढ़ा अथवा देखा नहीं था। गीता प्रेस की छोटी पुस्तिका इस नाम से घर के पूजागृह में अवश्य देखी थी।इस घटना से मुझे लगा कि सूर्यदेव चाहते हैं कि मैं इस का प्रतिदिन पाठ कर अपने जीवन को आलोकित करने की दिशा में चाहे एक सांकेतिक,छोटे ही रूप में,कर्म अवश्य करूॅ।सो उस दिन से मैंने इस का प्रयास किया की प्रतिदिन यथासंभव इसका पाठ करता रहूं।इसमें मैं कुछ हद तक सफल भी रहा हूॅ।ज्ञातव्य है कि श्रीआदित्यहृदय स्त्रोत वो स्त्रोत है जिसे अगस्त्य ऋषि ने श्रीराम से रावण को युद्ध में पराजित कर विजय प्राप्ति के हेतु पाठ का आदेश दिया था।संभवतः अपने आत्मिक प्रेम के चलते ही सूर्यदेव ने मेरी दशमुखी बाह्य संसार में आसक्त इंद्रियों को श्रीराम के हाथों से शिथिल कर "तासु तेज समान प्रभु आनन"(रावण की आत्मा प्रभु के शरीर में समा गई)की भावना से पाठ के आह्वान का मागॆ दिखाया।अब यह बिलकुल अलग बात है कि इस प्रकार के परम युद्ध में  हम जैसे अज्ञानी,मोहग्रस्त जीव  का एक जन्म में विजयश्री अपने अंक में भरना बड़ा दुरूह सा,लगभग असंभव कायॆ है इसमें दो मत नहीं।पर इस युद्ध हेतु आपने(परमसत्ता ने)अपनेवात्सल्य,स्नेहाशीष से सींचते हुए एक मागॆ दिखाया मेरे लिए यही महत्व और गर्व का विषय रहा है।अब उसे शिरोधायॆ कर चलना न चलना मेरा चुनाव है।वैसे मेरी धारणा है कि देर-सबेर हम सभी के जीवन में वास्तविक,सुनहरा प्रभात तो आना ही है आना है और वो आता भी रहता है।ऐसी प्रेरणा,ऐसा मार्गदर्शन,ऐसी कृपा तो ईश्वर प्रत्येक को प्रदान करने के लिए संकल्पबद्ध सदैव रहा है।हमें तो बस अपने कर्मों के माध्यम से सदैव तत्पर रहना चाहिए। ये भी ना सही तो अभिनय तो करना ही चाहिए क्योंकि कहा भी गया है "करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान"। तो ना जाने कब नकल,असल में तब्दील हो जाए।जय सूयॆदेव।क्रमशः▪▪▪▪▪

@नलिन #तारकेश(18/1/2018)

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