आयो नवल वसंत सखी
==============
नित्य के जीवन में हम देखते हैं कि यदि कोई मनुष्य कल धनवान था तो आज वह निर्धन है। वहीं कोई जो कल अवनति,उपेक्षा के गड्ढे में गिरा था तो आज वह उन्नति के शिखर चढ रहा है।सृष्टि में इस तरह का दौर चलता ही रहता है।प्रकृति भी क्योंकि इसका ही एक हिस्सा है सो वहां भी परिवर्तन सदा गतिशील रहता है। कभी सरसराती-कंपकपाती सर्दी तो कभी पतझड़ और वर्षा का रौद्र रूप प्रकृति की सुकुमार छवि को तार-तार कर देता है। लेकिन बावजूद इसके भ्रमर के हृदय में आशा की धुंधली किरण अपना प्रकाश किए रहती है।"इहहि आस अटक्यो रह्यै,अली गुलाब के मूल।आइहैं बहुरि वसंत ऋतु,इन डारनि वे फूल।।"
तो जब शीत का प्रकोप कम होने लगता है और उत्तरायण के साथ सूर्य मकर राशि में प्रवेश करता है तो धीरे-धीरे जीवन पुनः गतिशील होने लगता है।दिन लम्बे और शामें खुशगवार होने लगती हैं। दरअसल यह सब वसंत ऋतु के आगमन पर उसके स्वागत सत्कार की तैयारी के सिलसिले में होता है। स्वाभाविक है प्रकृति भी वसंत की आगवानी हेतु उत्सुकता से पलक पावड़े बिछाए तैयार नजर आती है।
भारतीय पंचांग के अनुसार माघ माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी तिथि को यह पर्व "वसंत पंचमी"या "श्री पंचमी" के नाम से लगभग पूरे भारत में पूरी धूमधाम और हर्षोल्लास से मनाया जाता है। खेतों में दूर तक फैली सरसों, गेहूं की फसल से लगता है धरती ने वसंती चोला धारण कर लिया है। आम के पेड़ पर आते बौर को देख कर कोयल भी खुशी से कूकती फिरती है।पेड़-पौधे भी मौसम की तब्दीली से अपने भीतर एक नई ऊर्जा का संचार पाते हैं और बदले में देते हैं अपनी खिलखिलाहट से लदे मोहक फूलों का हुजूम जिन्हें देखकर किसी का भी मन-मयूर नाचने लगे।
यह रितु ही ऐसी है कि इसमें मदमस्त कर देने वाली शोख़ हवा अपनी सुरभी से पूरे वातावरण को स्पंदित कर देती है। जड़-चेतन सभी में एक खुमारी, एक नशा अंग-प्रत्यंग में छा जाता है और सुमित्रानंदन पंत जी के शब्दों में कह उठता है "सिखा दो ना है मधुप- कुमारी। मुझे भी अपना मीठे गान,कुसुम के चुने कटोरों से, करा दो ना, कुछ-कुछ मधुपान" हमारे देश में कुछ शताब्दियों पूर्व कामदेव का पूजन इसी ऋतु में स्त्री-पुरुष नाचते गाते पूरे हर्षोल्लास के साथ नूतन परिधानों में सज धज कर बहुत बड़े पैमाने पर मनाते थे। कला संगीत की महफिलों से चौराहों की रौनक ढोलक, झांझ, मंजीरों के साथ सुरमई हो जाती थी।
यूॅ वसंत पंचमी के दिन विद्या बुद्धि ज्ञान और वाणी की देवी सरस्वती का पूजन मनाए जाने की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। ऋग्वेद के 10/ 125 सूक्त की आठवीं रिचा के अनुसार वाग्देवी सौम्य गुणों को प्रदान करने वाली हैं। इनका अनुग्रह "मूकं करोति वाचालं"(गूंगे को भी वाणी देने वाला) होता है।"या कुंदेंदु तुषार हार धवला या शुभ्रवस्त्रावृता या वीणावर।दंडमंडित।करा या श्वेतपद्मासना।" श्वेत फूलों के हार से सुशोभित,श्वेत परिधानों को धारण किए,हाथ में वीणा और श्वेत कमल लिए मां सरस्वती का पूजन विद्यालयों में पूरे मनोयोग से करने की परिपाटी रही है।इस दिन सरस्वती देवी के वार्षिक पूजन के साथ ही बालक-बालिकाओं के अक्षरारंभ एवं विद्यारंभ को अत्यंत शुभ माना जाता है।मदन मोहन मालवीय जी द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय "काशी विश्वविद्यालय" की नींव भी वसंत पंचमी को रखी गई थी।पुस्तक, लेखनी के साथ ही वाद्य यंत्रों का स्वरांजलि द्वारा सांगीतिक आराधन इस पर्व का मुख्य आकर्षण होता है।
शास्त्रों में इस दिन गंगा स्नान अथवा पवित्र,पुनीत नदियों में स्नान की महिमा भी गायी गई है।ब्राह्मण,आचार्य, गुरु के आशीष को प्राप्त कर अज्ञानता से ज्ञान,अंधकार से उजाले की ओर बढ़ने का संकल्प "असतो मा सद् गमय " लेना इस पर्व की विशेषता है। जिससे समस्त सृष्टि में ज्ञान का आलोक पूजित हो,अभिनंदित हो और हम सभी भूलोकवासी परस्पर स्नेह,ऊर्जा,उल्लास की राग रागनियों में आनंद-मगन हो गोते लगाएं।
@नलिन #तारकेश
No comments:
Post a Comment