किससे कहूं..........
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सुलगते हुए प्रश्नों की अंतर व्यथा किससे कहूं।
छांव में धूप के एहसास की बात किससे कहूं।।
गर्म रेत पर जलते कदम जो दिख रहे बढ़ते हुए।
बनेंगे यही दरिया रिसते हुए छाले किससे कहूं।।
जुल्फें मेरे महबूब की बिखरी हैं जमीं से आसमां तक।
उम्र कट जाएगी सारी सुलझाने में गांठें किससे कहूं।।
शीतल झरना जो अधरों को मीठा लग रहा है मेरे।
चीर कर कितने पर्वत शिखर आया है किससे कहूं।।
आसमां सी बुलंदियों छू लेना तो है आसान फिर भी। चुटकियों में मगर फिसल जाते हैं कदम किससे कहूं।।
काले घने स्याह बादलों ने अंधेरा है कायम किया हुआ।
हटेगा यही एक रोज निकलने से सूरज के किससे कहूं।।
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