भीतर जो कहीं से टूट जाता है आदमी।
नाराज तभी किसी से होता है आदमी।।
थक-हार जब तन्हा भटकता है आदमी।
सहारा हर कदम तब ढूँढता है आदमी।।
हर किसी की है यहाँ फितरत अलग-अलग।
कहो तो कब भला ये समझता है आदमी।।
चाहो जो फूल तो उसके काँटे भी चाहना।
ये सोच कहाँ मगर बना पाता है आदमी।।
शहर दर शहर तलाश करते थक गया सवाब*।*पवित्र कर्म
भीड़ मिली बस उसे कोई न मिला है आदमी।।
जमीं,आसमां बुलन्दियों के झन्डे तो गाड़ दिए।
खुद को भी जीतना था ये भूल गया है आदमी।।
आ जाती हैं जब गले-गले उलझनें नई-नई।
"उस्ताद" की कदर तभी पहचानता है आदमी।।
@नलिन#उस्ताद
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