मंगलमूर्ति प्रथमपूज्य श्रीगणेश तत्व
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ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।ज्येष्ठराजं ब्रहणां ब्रहणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्। (ऋग्वेद 2/23/1)
भारतीय आध्यात्मिक पौराणिक कथाओं का जो लोग छद्म विज्ञानिक/भौतिक दृष्टि से अनुसंधान करना चाहते हैं वह उसके मूल,उसकी आत्मा को कदापि छू नहीं सकते हैं।यहां तो पतॆ दर पर्त कथाएं एक दूसरे से इस अद्भुत कारीगरी से जुड़ी हैं कि इसकी पड़ताल करते हुए आप हतप्रभ रह जाएं।ऐसा ही एक चरित्र है श्री गणेश का।यानि उस देव का जो गणों का मुखिया या कहें ईश्वर है। गण का अर्थ है वर्ग,समूह,समुदाय।सो वह उनका नेता है।यूँ गण-देवों में 8 वसु,11 रुद्र, 12 आदित्य की गणना होती है। अतः वह उनका भी नेतृत्व करता है।गण को सेना की टुकड़ी से भी जोड़ा जाता है।जिसमें 27 हाथी, 27 रथ,81 घोड़ी और 135 की संख्या में पैदल सेना होती है।अतः गणेश इस लिहाज से सेनाध्यक्ष भी हैं।ज्योतिष की बात करें तो उसमें 3 गण हैं।देव,मनुष्य व राक्षस। इन तीनों पर उसकी सत्ता ईश्वर होने से निर्विवाद है।छंद शास्त्र में मगण,नगण,भगण, यगण,जगण,रगड़,सगड़ ये 8 गण हैं।और वैसे अक्षरों को भी गण कहते हैं।इससे अक्षरों, शब्दों पर उनका स्वामित्व उन्हें विद्या -बुद्धि का परमपूज्य आचार्य बनाता है तो आश्चर्य कैसा।श्रीगणेश को शिव और शिवा का पुत्र कहा जाता है।अर्थात श्रद्धा रूपी पार्वती और विश्वास रूपी शिव के मिलन से ही विवेक रूपी गणेश की उत्पत्ति होती है।लेकिन उनकी मान्यता ऐसी हो जाती है कि वह विराट होकर प्रथम पूज्य हो जाते हैं।शिव-पार्वती अपने विवाह में उनका आवाहन, अभिनंदन कर उनसे मंगल याचना करते हैं।यह बड़ी अद्भुत बात है।श्रीरामचरितमानस मैं तुलसीदास जी लिखते हैं :
"मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभू भवानी। कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।।"(दोहा 1/100)
अब जो ये गणेश प्रथम पूज्य बने तो वह शिव पार्वती के सम्मुख, उनकी वजह से बने। यह और आश्चर्य में डालने वाली कथा है।जिसके अनुसार एक बार देवताओं में किसे अग्रणी मान कर पूजा का विधान हो,इस हेतु एक प्रतियोगिता रखी गई।इसमें पृथ्वी का अतिशीघ्र चक्कर लगाने वाले को विजेता होना था।सो सभी अपने-अपने वाहनों मेंचले।तो वहीं गणेश ने अपने माता-पिता की ही परिक्रमा कर ली।जो आज भी "गणेश- परिक्रमा" से लोगों में खूब प्रसिद्ध है।क्योंकि इस माध्यम से उन्होंने यह संदेश भी दे दिया कि जो हमारा मूल आधार है वही वस्तुतः हमारा जगत है।उसे हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए।इस तरह की विशिष्ट बुद्धि- विवेक की क्षमता ने उन्हें प्रथम पूज्य बना दिया।दैनिक जीवन में जो हम पंचदेव पूजन करते हैं उनमें शिव,नारायण,सूर्य,देवी के साथ पूजित होने वाले गणेश अग्रणी हैं।पंच पूजन और कुछ नहीं वस्तुतः पंच तत्वों का ही पूजन है। जिनसे हमारा निर्माण हुआ है। इसमें शिव: पृथ्वी तत्व के कारक हैं।उनका पार्थिव पूजा द्वारा विधान है।विष्णु: आकाश तत्व हैं। शब्दों द्वारा उनका विधान है।देवी: अग्नि तत्व होने से हवन कुंड का विधान हैं।सूर्य: वायु तत्व होने से प्राण का विधान हैं।और गणेश: जल तत्व होने से उनका प्रथम पूज्य का विधान हैं क्योंकि सृष्टि को अंकुरित करने का काम जल का ही है।ईश्वर "एकोअहम द्वितीयो नास्ति"से जब "बहुस्यामि" के रूप में अवतरण लेता है तो गणेश जी की छवि हमारी मन-मस्तिष्क में छा जाती है।वह अपने मूल रूप में ओंकार स्वरूप हैं।जो सत, रज, तम गुणों के साथ अपनी अनुस्वार(बिन्दी) से ब्रह्म का प्रकृटिकरण करते हैं।यूँ जो स्वस्तिक 卐 का चिह्न है उसे भी चतुर्भुजी गणेश/ओंकार माने जाने से उसका भी अंकन शुभता सूचक माना जाता है। अब कला की दृष्टि से देखें तो आप पाएंगे कि कलाकारों/चित्रकारों ने उनके ओंकार/गणेश स्वरूप को इतने बहुस्यामि,नानाविध रूपों में प्रस्तुत किया है कि मुझे संदेह है कि इतने अधिक रूप में किसी अन्य देव का चित्रण हुआ भी होगा कि नहीं।मजे की बात है कि उनके सभी रूप एक से बढ़कर एक नयनाभिराम, जादू जगाते एक नई गति,एक नए रूप को लेकर रिकॉर्ड बनाते हैं।लगता है संभवतः तूलिका भी उनके अंगविन्यास से अपने को कृतकृत्य करना चाहती है।श्री गणेश की दो पत्नियाँ रिद्धि और सिद्धि बताई जाती हैं।जो व्यक्ति में विवेक होने पर रिद्धि-सिद्धि के रूप में फल-यश को देने चँवर डुलाते आ ही जाती हैं।गणेशजी चतुर्भुज हैं।एक में पाश और एक में अंकुश है जो क्रमशः तमोगुण व रजोगुण का समूलोच्छेदन करता है।वहीं एक हाथ अभय मुद्रादायी हो भविष्य के प्रति कल्याणकारी आश्वस्ति देती है।गणेशजी के चौथे हाथ में मोदक है।जो इस सबके अर्थात रजोगुण, तमोगुण के नाश व कल्याण की आश्वस्ति के पश्चात मोद अर्थात आनंद का संचार करता है।गणेश जी एक कथा उनके गजमुख होने की भी है। जिसके अनुसार वे शिव को मां पार्वती की आज्ञा के चलते घर में प्रवेश करने से रोकते हैं।इसकी वजह से शिव द्वारा उनका शिरोच्छेदन किया जाता है।बाद में शिव ही उनके सिर पर हाथी का सिर लगाते हैं।जो यह भी दर्शाता है कि पिता अपने पुत्र में अहंकार के बीज उगते देख हाथी जैसे शांत जीव के मस्तिष्क का उनमें रोपण कर सद्गुणों की राह पर उन्मुख करता है।गणेश की कमर में जो सर्प लिपटा दिखाया जाता है वह उनकी कुंडलिनी शक्ति पर स्वामित्व को बताता है।यहां भी कुंडलिनी शक्ति का प्रथम चक्र जो मूलाधार (गुदास्थान) में स्थित है और त्रिकोणाकार रक्तवर्णी है उनको समर्पित है। यद्यपि वे ईश्वर हैं तो यह कहना कि वे ज्योतिषीय मान्यता अनुसार नौ ग्रहों में से एक ग्रह केतु के कारक हैं अटपटा सा लगता है।लेकिन इसकी विवेचना पूर्व में की जा चुकी है।गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं "आदित्यानमहं विष्णुर्ज्योतिषांरविरंश्रुमान"
( 10/21)
तो यह सब प्रतीक रूप में सिर्फ समझाने को है।श्रीरामचरितमानस में तुलसीदासजी लिखते हैं: "जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।।"(दोहा:7/72ख)तो जब नट अलग -अलग रूप दिखा सकता है तो वह तो नटराज अर्थात ईश्वर है। दरअसल केतु ग्रह ध्वजा(अर्थात विजय),धर्म,पूर्व जन्मों के शुभ-अशुभ कर्मों का कारक है।अतः कह सकते हैं कि गणेशजी धर्म के ध्वजा वाहक हैं और पूर्व जन्मों के अशुभ कर्मों का क्षय कर धर्मानुकूल नव मंगल कर्मों का सृजन कराने में सक्षम हैं।इसके चलते उनकी प्रथम स्थापना से, किसी भी कार्य में धर्म-ध्वजा का रोपण होने से,सद् प्रवृतियों का निवास होने से,धर्मयुक्त उस कार्य की मजबूत नींव पड़ने से,उस कार्य का भव्यतापूणॆ निष्पादन हो जाता है।वैसे मुझे उन में बुध ग्रह का भी बिम्ब दिखता है।बुध ग्रह के अनेक प्रतीक चिन्ह उनमें नजर आते हैं। मसलन हास्य-व्यंग की निपुणता,कलाओं के महारथी,लेखन (व्यास जी से सुनकर पुराण,महाभारत को लिखने वाले)त्वरित बुद्धि,विज्ञानमय सोच, तर्क- शक्ति, प्रतिभा सम्पन्न, नव-सृजनकारी, खानपान का शौक आदि-आदि।उनका स्थूलकाय शरीर विशेषतः उभरी हुई तोंद, छोटी आंखें जो बारीक से बारीक वस्तुओं को देख लेती हैं वहीं अपने विवेक के कारण छुद्र बातों/दोषों को नजरअंदाज कर देती हैं।उनके सूर्पाकार कान सूप के ही समान "सार-सार को गहि रहे थोथा देई उड़ाय की"नीति पर चलते हैं।उनका वाहन मूषक जो बड़ा ही चंचल,चतुर जीव माना जाता है लेकिन दिखने में दुबला-पतला,कृशकाय सा होता है उस पर विराजमान गणेश जी का भारी-भरकम शरीर हास्य रस का सहज ही प्रवाह करते हुए दिखता है।लेकिन असल में वह मूषक हमारी इंद्रियों की चंचल प्रवृतियों का प्रतीक है जिसे गणेशजी अपने विवेक और अंकुश से नियंत्रित करने का संदेश देते हैं।अभी जब मैं मदुरई/मदुरै गया था तो वहां मीनाक्षी देवी(पार्वती) के सम्मुख विराजमान विशालकाय श्री गणेश जी की प्रतिमा को प्रणाम करने लगा तो पंडित ने कानों को हाथों से(क्राॅस करते हुए) पकड़ कर उठ्ठक-बैठक लगाते हुए उनके शीघ्र प्रसन्न होने की बात कही और बताया कि जब दुष्टों के मर्दन हेतु सुदर्शन चक्र की प्रार्थना श्री गणेश से की थी।इससे ही मुझे स्मरण हुआ कि गायक,वादक आदि लोग जब भी कभी अपने गुरु का स्मरण करते हैं तो कान को हाथ से छूते हैं।इस प्रकार वो अपने गुरु की वहाँ उपस्थिति मानते हुए उन्हें प्रणाम करते हैं।वैसे कहीं हाल ही मैंने ये भी पढा था कि पुराने समय में जो कान पकड़ कर उठ्ठक-बैठक की सजा छात्रों को दी जाती थी वो उनके मस्तिष्क/बुद्धि को तीव्र करती थी।विदेशों में इस तरह की कसरत ऐसे लाभ को देखते हुए पर्याप्त लोकप्रिय हो रही है।सो इतना स्मरण आते ही मैंने इसी,"दोर्भिकर्ण- मुद्रा "में फटाफट उनके द्वादश नामों : ॐ सुमुखाय नमः।ॐ एकदन्ताय नमः।ॐकपिलाय नमः।ॐ गजकर्णकाय नमः।ॐ लम्बोदराय नमः।ॐ विकटाय नमः।ॐ विघ्नाशाय नमः।ॐविनायकाय नमः।ॐ धूम्रकेतवे नमः।ॐगणाध्यक्षाय नमः।ॐभालचन्द्राय नमः।ॐगजाननाय नमः। का उच्चारण करते हुए प्रणाम किया।इस श्रद्धा और विश्वास के साथ कि विश्व में यथाशीघ्र सद्प्रवृतियों का उभार हो और विध्नकारी आसुरी शक्तियों का समूल विनाश हो जिससे मंगलमूर्ति श्रीगणेश जी का हमारे जीवन में साक्षात प्रकाट्य हो।
।।जय श्री गणेश।।
@नलिन#तारकेश
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