मुझे कहाँ रदीफ,काफिया मिलाना था।
अपन को तो बस दिल ये बहलाना था।।
जरा सी शिकायत से रूठ जाते हैं लोग।
सो कहीं न कहीं गुबार तो निकालना था।।
नजदीक रहकर भी जब तन्हा ही रहना हो। बेवजह फिर तो किसी से दिल लगाना था।। होठों पर पपड़ियाँ निगाहें गेसूओं से ढकीं।
चट्टान के नीचे एक गमे तो दरिया बहना था।।
सभी मुसाफिरों की मंजिल है आफताब*।
*सूरज(सूर्यात्माजगतश्चक्षु)
मकसद रूह का बस सजना-संवरना था।।
गर्म रेत चल के"उस्ताद"नंगे पाँव आ गया।
उसे तो हर हाल आबे-हयात* गटकना था।।
*अमृत
@नलिन#उस्ताद
I am an Astrologer,Amateur Singer,Poet n Writer. Interests are Spirituality, Meditation,Classical Music and Hindi Literature.
Saturday 28 September 2019
गजल:253 आबे हयात
Friday 27 September 2019
पिताश्री की कलम से
यह भी खूब रही
○●○●○●○●लघुकथा
हमारे कार्यालय के एक सहायक ने अपने 2 दिन के आकस्मिक अवकाश के आवेदन पत्र में यह उल्लेख किया कि उनके पैर में कील गड़ गई है जिसके कारण वे कार्यालय उपस्थित होने में असमर्थ हैं। 2 दिन बाद जब वे कार्यालयआए तो उनके दाहिने हाथ के अंगूठे में पट्टी बंधी थी और पैर ठीक अवस्था में प्रतीत होते थे। हमारे अधिकारी ने भी इस पर ध्यान दिया और अपनी आदत के अनुसार उनसे पूछ लिया "क्यों डियर पैर की कील क्या अंगूठे के रास्ते बाहर निकल गई है।अवकाश लेने वाले उन सहायक की दशा देखने लायक थी।भुलक्कड़ स्वभाव के कारण उन्हें याद ही नहीं था कि उन्होंने पैर में कील गड़ने का बहाना बनाया था।
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जब याद आ जाती तुम्हारी
○●○●○●○●○●○●○●कविता
जब याद आ जाती तुम्हारी।
अधीर मन हो जाता है भारी।
भाग्य की रेखाओं में खींची हैं-
विरह की घड़ियां तुम्हारी-हमारी।।
उस बार का वह मधुर मिलन।
जो हो गया अब एक स्वपन।
क्या फिर कभी मिलन के बादल-
बुझा सकेंगे मेरी विरह जलन?
पावस ऋतु के ये काले बादल।
पीड़ा छिपाए हुए अपने आंचल।
लायेंगे संदेश मेरा ये तुम तक।
बहाना न अपने नैनों का काजल।।
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होनहार
○●○●कविता
एक क्षण न पहले हो सकेगा,
कार्य तेरा इस जगत में।
जो लिख दिया है उस ईश ने,
हर बात होना अपने समय में।।
शक्ति कितनी ही खर्च कर,
नर अगर चाहे बदलना।
उस घड़ी का कठिन है,
अपने समय से पलटना।।
हो कर ही रहती है होनहार,
ये मानना पड़ता है सबको।
कर्तव्य करना धर्म अपना,
छोड़ उसी पर फल की आशा को।।
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गजल-252:बरसात हो रही
मुद्दतों बाद आज ऐसी बरसात हो रही। तबीयत से भीगो भारी बरसात हो रही।। बच्चे खुश हैं बड़े रेनी डे जो हो गया।
चलाने गली में कश्ती बरसात हो रही।।
सूखा सा रहा सावन औ निकला सूखा भादो।
असौज*के जाते-जाते सारी बरसात हो रही।*आश्विन मास
मिजाजे लखनऊ है शुरू से ही ऐसा।
सो ये उसमें ही ढली बरसात हो रही।।
उमस जा के दुबकी गुलाबी ठंड है छाई। लाने लबों पर हँसी बड़ी बरसात हो रही।।निकालो"उस्ताद"जो है दुछत्ती में संभाली। छलकाने को जाम आज ऐसी बरसात हो रही।।
@नलिन#उस्ताद
Wednesday 25 September 2019
गजल:251:मेरा नाम लेना था
उसकी जुबां को मेरा नाम लेना था।
जमाने को फिर तो हैरान होना था।।
आँखों से आँखें जो मिल गईं।
रूह को हर हाल महकना था।।
उसके सिवा नहीं कोई अपना।
बस यही हमें यार समझना था।।
चेहरे-मोहरे से तो बड़ा भला लगा मुझे। किसे खबर थी रंग उसने बदलना था।।
आँगन से बगैर बरसे गुजर गया बादल।
जाने किसने उसे ये पाठ पढ़ाया था।।
दांव उल्टा तो कभी सीधा ये तो लगा ही है।
इन बातों से कहाँ कब तक झिझकना था।।
पी जो उनकी निगाहे पैमाने से मय।
उस्ताद का वाजिब बहकना था।।
@नलिन#उस्ताद
Tuesday 24 September 2019
गजलः250-खुद बदलना था
दरख़्त से इतना सीखते तो अच्छा था।
लद जाएं जो फल तो हमें झुकना था।।
आँसू बरसाने में कोताही ना करना।
वरना ये दिल तो अंदर ही घुटना था।।
जाड़ा,गर्मी,बरसात हैं मौसम के नजारे। इनका तो हमें हर-हाल लुत्फ लेना था।।
हर घड़ी की फितरत अलग है जनाब।
तालमेल यहाँ तो बस यही बैठाना था।।
वो बुलन्दियों पर चमके सूरज सा तो क्या।
लकीरों को हाथ की हमें खुद बदलना था।।
सफर में जिन्दगी के जो सुकूं चाहो तुम।
"उस्ताद"के मानिन्द खाली हाथ रहना था।।
@नलिन#उस्ताद
Monday 23 September 2019
गजल-249:छनक रही
हर कदम के साथ मेरे पायल छनक रही।
लगता है मेरे साथ-साथ तू भी बहक रही।।
यूँ तो तुझसे बिछड़े एक जमाना हो गया। खुशबू तेरे ख्याल की अब तक महक रही।। फूल ही फूल खिले अहसास के आसपास। शबे महताब सी इस अमावस रौनक रही।।आने की बस उम्मीद में बहारों का मौसम।
टोली हर डाल-डाल परिंदों की चहक रही।।
चलते-चलते जो मंजिल के निशां दिखे। निगाहें थके राही की फिर से चमक रही।। होगा आमना-सामना माशूके हकीकी से। दिले धड़कन तेज लो"उस्ताद"धड़क रही।।
@नलिन#उस्ताद
Sunday 22 September 2019
गजल-248:रात दीवाली हो गई
असली-नकली की पहचान मश्किल बड़ी हो गई।
पेट में आजकल तो सबके ही लंबी दाढ़ी हो गई।।
अपने-पराए सभी चाल चलने में गहरी मशगूल हैं।
शतरंज की बिछी बिसात सी ये जिंदगी हो गई।।
सारे चैनल तो दिन-रात कानफोड़ू बहस कर रहे।
काजी जिसे बोलना था बंद उसकी बोलती हो गई।।
किताबें तो खंगाल ली बच्चों ने सारी की सारी।
कुछ हमसे ही देने में रिवायत*की कमी हो गई।।*परम्परा
प्रोडक्ट ही हो गए हों रिश्ते-नाते सभी जब।
एक-दो साल से ज्यादा कहाँ गारंटी हो गई।।
जिस्म से जेहन सभी खुले-बाजार से सजे हैं।
ये इज्जत-आबरू नीलाम सबकी हो गई।।
काम निकल जाए तो फिर कोई पूछता नहीं।
अब नई ये यूज एंड थ्रो की पाॅलिसी हो गई।
आँखों में"उस्ताद"जबसे इश्के-हकीकी* छा गया।*ईश्वरीय
लो हमारी तो दिन होली,रात दीवाली हो गई।।
@नलिन#उस्ताद
Saturday 21 September 2019
गजल-246:छूने में आसमां
छूने में आसमां खड़ी नई मुश्किलें हो गईं।
शायद ज्यादा ही नाजायज चाहतें हो गईं।
रात भर सोया नहीं समझाता रहा उनको।
अजीबोगरीब बच्चों की फरमाइशें हो गईं।।
गलत तू भी नहीं गलत वो भी नहीं जरा सा।
अलग एक मंजिल की लेकिन तकरीरें* हो गईं।।अभिव्यक्ति/बयान
बदल रहे जमाने की क्या दुश्वारियाँ*कहें हम।*मुश्किलें
चुनौतियाँ तो हर दिन खड़ी मुँह बाए हो गईं।।
अब तो हर कोई काबिल"उस्ताद"हो रहा।
फलसफा*झाड़ने की फजूल जरूरतें हो गईं।।*तर्क/ज्ञान
@नलिन#उस्ताद
गजल-247-दुखती रग
दुखती रग जो मैंने हाथ रख दिया था।
कुछ कहे बगैर वो फफकने लगा था।।
नजूमी हूँ पढ़ पाता हूँ जो चेहरे के तासूर को।
खुदा की इनायत का ये एक छोटा सिला था।।कहें किससे भला तकलीफ और कौन सुने। सभी का हाल-बेहाल यहाँ एक जैसा था।। दफ्न कर नहीं सकते न ही कह सकते किसी से।
दर्दे सैलाब का दरिया रेतीली आँख रिसता था।।
निगाहों में चमक का तबसे अलग ही अंदाज है।
जबसे गुफ्तगू का उससे एक मौका मिला था।
लकीरों में हाथ की दिखते हैं चांद,तारे सभी। हाथ धोकर तभी तो"उस्ताद"पीछे पड़ा था।।
@नलिन#उस्ताद
Thursday 19 September 2019
गजल:245 -वक्त रंग बदलता है
वक्त भी गिरगिट सा क्या गजब रंग बदलता है।
बुलंदियाँ देता है तो कभी नेस्तनाबूद करता है।।
लाने का मुसलसल भले दिनों का जो दावा करे।
लीडर वो दरअसल अपना ही भला चाहता है।।
एक बरसात ने दिलकश बड़ा माहौल कर दिया।
ये मौसम भी न जाने क्या-क्या गुल खिलाता है।।
अजब रंग नए रोज दिखाती है सियासत हमको।
भरने साहब का टैक्स वो हमसे चंदा माँगता है।।
मरता है आम आदमी तो चुहलबाजी सूझती है उसे।
मिला एक दिन मिलावटी सामान तो नेता बौखलाता है।।
निठल्ला बैठना ही जब उसके नसीब में मढा हो।
जाने फिर क्यों खरीदना वो एक घड़ी चाहता है।।
समय रूकता नहीं ये तो सच है किसी के लिए भी।
मगर बुरा दौर आसानी से कहाँ भला गुजर पाता है।।
गए नहीं लगता बहुत दिनों से हुजूर हंसीन वादियों में।
खेलने शिकार तभी तो उन्हें कश्मीर याद आता है।।
चलेंगी न मगर रंगे सियार सी ये हरकतें तुम्हारी।
"उस्ताद"हर आदमी अब अपना हिसाब मांगता है।।
@नलिन#उस्ताद
Wednesday 18 September 2019
गजल:244-दिल समूचा उसका
जिस्म की परवाह नहीं ये नया हो जाएगा।
ये तो बता किस जनम तू मेरा हो जाएगा।।
यूँ तो रहता है हर घड़ी तू साथ हर जगह मेरे।
मगर यह एहसास सच्चा कब भला हो जाएगा।।
झीना सा पर्दा हटना तो तय है हमारे बीच से।
जानना ये है वक्त इसका कब पूरा हो जाएगा।।
उम्मीद की लौ टकटकी लगा दर पर तेरे जल रही।
क्या यह चिराग इस बार भी यूँ ही फना हो जाएगा।।
बहुत बेचैनी भी अच्छी नहीं यूँ तो उस्ताद। मिटेंगे फासले जब दिल समूचा उसका हो जाएगा।।
@नलिन#उस्ताद
गजल-243 शहनाईयाँ
होने को हकीकत हर ख्वाब तैयार है।
हुआ उसे जब से उसका दीदार है।।
फिजा में दिख रही है अभी से नायाब छटा। होगा आगे क्या उसे बस इसका इंतजार है।।
कदम दर कदम सांसो का संग सिलसिला चल पड़ा।
लेने को दिलकश आकार ये आशियाँ तैयार है।।
आँखों में उसके नूरअब कुछ अलग ही दिख रहा।
यूँ अभी तो बस शुरू हुआ प्यार का इजहार है।।
राहें अलग-अलग मिल गईं खूबसूरत मोड़ पर।
करने खैरमकदम* लो यहाँ मंजिल भी बेकरार है।।स्वागत
बजने लगी"उस्ताद"दिले दहलीज पर शहनाईयाँ।
नजदीक आ गई बारात कानों में पड़
रही पुकार है।।
@नलिन#उस्ताद
Tuesday 17 September 2019
गजल-238: चाहता है
गम और खुशी से अछूता दिखाना चाहता है।
वो तो दरअसल मुझे खुदा बनाना चाहता है।।
समझता हूँ मैं उसकी सारी चालाकियाँ।
करना वो अपना उल्लू सीधा चाहता है।। बेतरतीब बिखरे हैं सभी रंग जमाने के।
गमगुसार*बस उन्हें सजाना चाहता है।।*संवेदनशील
यकीनन बड़ा खूबसूरत है कुदरत के साथ रिश्ता।
खुदगर्ज मगर आदमी इसे दोहना चाहता है।।
मट्टी,आकाश,आग,पानी,हवा से बने हैं हम सब।
वो जाने फिर भला क्यों हमें बाँटना चाहता है।।
जिस्म की बात तो होगी चलो जब तक वो साथ है।
"उस्ताद"मगर नब्जे रूह अब टटोलना चाहता है।।
@नलिन#उस्ताद
Monday 16 September 2019
गजल-237:आदमी
भीतर जो कहीं से टूट जाता है आदमी।
नाराज तभी किसी से होता है आदमी।।
थक-हार जब तन्हा भटकता है आदमी।
सहारा हर कदम तब ढूँढता है आदमी।।
हर किसी की है यहाँ फितरत अलग-अलग।
कहो तो कब भला ये समझता है आदमी।।
चाहो जो फूल तो उसके काँटे भी चाहना।
ये सोच कहाँ मगर बना पाता है आदमी।।
शहर दर शहर तलाश करते थक गया सवाब*।*पवित्र कर्म
भीड़ मिली बस उसे कोई न मिला है आदमी।।
जमीं,आसमां बुलन्दियों के झन्डे तो गाड़ दिए।
खुद को भी जीतना था ये भूल गया है आदमी।।
आ जाती हैं जब गले-गले उलझनें नई-नई।
"उस्ताद" की कदर तभी पहचानता है आदमी।।
@नलिन#उस्ताद
234-गजल: बैठ आईने के सामने
बैठ आईने के सामने इबादत करता हूँ।
वो बसा है मुझमें बस ये सच मानता हूँ।।
फंतासी*में बहकने का,जरा भी है शौक नहीं मुझे।*कल्पना
नवाजा जो उसने,बस उस काम से काम रखता हूँ।।
ढूंढू उसे,भला दर-दर भटक कर,क्यों मैं उसे। धड़कनों में अपनी,जब उसे रोज ही सुनता हूँ।
जिंदगी का दस्तूर,असल निभाने की खातिर।
लबों पर हंसी,जेहन में बस सुकून रखता हूँ।।
सुबह हो,शाम हो ये तो बस उसका इख्तियार है।
भला मैं कहाँ इसकी जरा भी फिक्र करता हूँ।।
प्यार और प्यार दुनिया में रहे हर तरफ बस। खुदावंद से महज इतनी मैं दरकार रखता हूँ।।
मुफलिसों का बनके हमदर्द जो उनके आंसू पी सके।
उसे ही उस्ताद दरअसल मैं अपना खुदा चाहता हूँ।।
@नलिन#उस्ताद
Saturday 14 September 2019
पितरों को
पितरों को श्रद्धा-सुमन
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आए हैं पितर दूर से,जरा इनका मान तो कीजिए।
थके-मांदे हैं ये,आप इनका सत्कार तो कीजिए।।
मिलने चले आए हैं ये,प्यार के वशीभूत हो हमसे।
बस भाव के भूखे हैं ये,सो भावांजलि तो दीजिए।।
पाला था इन्होंने हमको,न जाने कितने जतन से।
दिए थे जो संस्कार उनका,थोड़ा तो पालन कीजिए।।
कैसी चल रही जिंदगी आपकी,जानने को हैं उत्सुक बड़े।
दरियादिली दिखा किसी गरीब की,आप भी मदद कीजिए।।
करुणा,दया,मदद का कभी भी,कोई यूँ तो है विकल्प होता नहीं।
सो इनमें ही रूप नारायण,या कि फिर पितर का तलाश लीजिए।।
आज जो भी हैं हम-आप सभी,पितरों के अति पुण्य प्रताप से।
वो ऋण तो है उनका अतारणीय,पर श्रद्धा से स्मरण तो कीजिए।।
भादो की पूनम से लेकर,आश्विन के घोर अमावस सोलह दिनों।
कम से कम किसी एक दिन,पितरों को अपने श्रद्धा से नमन कीजिए।।
@नलिन#तारकेश
Friday 13 September 2019
231-गजल:खैरात हो गई
बाद एक मुद्दत जो उससे मुलाकात हो गई। लो उमस भरी रात चुपचाप बरसात हो गई।।
महकता है हर ख्वाब जागने के बाद भी अब तो।
हकीकत की देखो ये नई गजब शुरुआत हो गई।।
दबी थी दिल में जो दुआ एक जमाने से। कबूल होना ये खुदा की करामात हो गई।।
लगे हैं फूल खिलने बंजर जमीं में हर तरफ। प्यार की बड़ी ये दिलों को सौगात हो गई।। हौंसला दिया जो उस्ताद ने चलने का हमें। कामयाबी तो जैसे सदा को खैरात हो गई।।
@नलिन#उस्ताद
डगर आसान नहीं
मानता हूँ डगर तेरी है ये आसान नहीं।
हारने वाला पर मैं भी हूँ हौंसला नहीं।।
जिद पर आऊँ,तो कुछ भी मुश्किल नहीं।
मगर ये अदा मेरी,दी है तूने सो मेरी नहीं।।
तू बुलाता सभी को मगर कोई आता नहीं।
राह समझ के नामुमकिन कोई चलता नहीं।।
अब जो मिलने की सोची तो,टालूंगा मैं नहीं।
चुनौतियां आसान यूँ भी,मुझको भाती नहीं।
जानता हूँ जो चलूंगा और जरा भी डरूंगा नहीं।
तू बाँहों में कभी मुझको भरने से हिचकेगा नहीं।।
तेरी आगोश में तय है,अंधेरा पास फटकेगा नहीं।
कदम कहीं भी अब मेरा ये,कभी भटकेगा नहीं।।
@नलिन#तारकेश
Wednesday 11 September 2019
सृष्टि के प्रारम्भ से ही
सृष्टि के प्रारम्भ से ही,प्रेम तो अत्यन्त पुनीत, जग में रहा।
तेरे-मेरे साथ में,जबसे वो घुला तो,त्रिवेणी बन बहता रहा।।
आशा-निराशा के दो किनारे भी,तबसे एक हो गए।
जबसे हमारा प्यार उसमें,सतत उफन बहता रहा।।
सींच कर हर किसी को,हरा-भरा कर देता है प्यार।
तभी तो जहाँ भी हम बढे,वहाँ न कोई शेष मरुस्थल रहा।।
प्रेम तो है अनमोल-दिव्य,जो अमरत्व को है समेटे हुए।
अपेक्षा-उपेक्षा से भला कहाँ,असल प्यार है मरता रहा।।
छिद्रयुक्त बाँस तुमने,जो अधर पर प्रीत से है रख लिया।
समस्त जड़ ब्रह्मान्ड भी,साकार हो नृत्य करता रहा।।
राधा,मीरा ताल में बाँवरी हो,तब नाचने-गाने लगीं।
ढाई आखर प्यार का,जब मंत्र कान गूँजता रहा।।
भला"तारकेश"भी तारण करें,यहाँ किसी जीव का।
सबका ही तन-मन,प्रीत की लौ जब बिसरता रहा।।
@नलिन#तारकेश
Tuesday 10 September 2019
संभावनाओं को श्रीचरण समझ राम के
संभावनाओं को,श्रीचरण समझ रामके,आप पखारिए।
बनके केवट खुद आज अपनी नाव ये पार लगाइए।
मिलाने से आंख मछली की आँख से जरा न हिचकिचाए।
स्वयं है आप सव्यसाची*खुद को जरा सही से स्वीकारिए।।*अर्जुन/दोनों हाथ से सिद्ध
तरकश कुशल-कर्म के दिव्यास्त्र पर दृष्टि भी तो डालिए।
उठाइए लक्ष्य पर दिव्य गांडीव अपना कंठ सूखे भिगाइए।।
ज्ञान का प्रभाकर प्रचंड दिशा प्राची अब तो उगाइए ।
लालिमा बाहोंमें भरके उसेअपनी अंकशयनी बनाइए।।
खुद ही बनके जामवंत प्रज्ञा को आप झंझोरिए।
नामुमकिन कुछ भी नहीं है हनुमान बन दिखाइए।।
कर्म यज्ञ तो होगा यूं ही निरंतर ये भी आप जान लीजिए।
कहाँ,कैसी रहेगी भूमिका स्वस्थ आपकी बस इसे पहचानिए।
हर काम है जो सत्यम शिवम सुंदरम उसे राम काज जानिए।
भुला कर बस अहम् अपना हर काम को सुलटाइए।।
@नलिन#तारकेश
Monday 9 September 2019
230-गजल
वो बोलता है झूठ कि मुझसे प्यार करता है। असल तो बात है उसे मुझसे काम रहता है।। दुनियादारी इस कदर बढ़ गई है अब तो यहाँ।
गली मोहल्ले हर कोई बस जज्बात बेचता है।।
क्या कहो झूठे गले लगा बाहों में भरने को। जब पीठ पीछे वो तेरे लिए जाल बुनता है।। कदम उसके बढ़ रहे दोजख* को ये उसे खबर नहीं।*नरक
वो तो बस हर घड़ी मेरी मुखबिरी* में दिखता है।।*जासूसी
यूं तो"उस्ताद"बेखौफ है अल्लाह के फजल* से।*कृपा
मगर हद है वो भी उसी से मेरी मौत मांगता है।।
@नलिन#उस्ताद
गजल-229 यूँ तो तू हर जगह मौजूद
यूँ तो तू हर जगह मौजूद रहता है।
मगर मुझे क्यों नहीं दिखाई देता है।।
कहाँ से लाऊँ तुझे देखने की नजर बता।
ये मेहरबानी भी तो तू ही अता करता है।।
कहता है तू ही कि बसता हूँ तेरे दिल में।
ढूँढने पर मगर कहाँ अब तक तू मिला है।। माँगता हूँ क्या तुझसे और तू देता है क्या। पागल बना जाने क्यों भटकाता रहा है।।
जानता है जबकि इम्तिहान से डरता हूँ मैं।
खौफ दिलाने में मगर तूझे आता मजा है।।
उस्ताद सजदा किए बैठा हूँ मैं तो कब से।
एक नजर देख तो सही तेरा जाता क्या है।।
@नलिन#उस्ताद
Saturday 7 September 2019
गजल-228 चन्द्रयान -2
कुछ मुझसे ही जाने-अनजाने खता हो गयी ए मेरे चाँद।
वर्ना मिलने की तो तुझमें भी कम न थी बेकरारी ए मेरे चांद।।
खैर चल छोड़ ये तो हुई अब पुरानी बात।
होगा दीदार तेरा जल्दी ही ए मेरे चांद।।
तेरे आंचल ला के भर दूंगा देखना बेहिसाब प्यार इस बार।
कसम से खफा ना होना ये जुबां मेरी रही ए मेरे चांद।।
ये दुनिया भी मतुमइन*होगी जान ले तब तेरे मेरे इश्क से।*भरोसा
हर जगह बात बस हमारी ही छिड़ेगी ए मेरे चांद।।
प्यार में थोड़ी इंतजारी से मिलने की बात कुछ और है यार।
जिस्म,रूह उस्ताद सब हैं पलकें बिछाती ए मेरे चांद।।
@नलिन#उस्ताद
Friday 6 September 2019
मंगलमूर्ति प्रथमपूज्य श्रीगणेश तत्व
मंगलमूर्ति प्रथमपूज्य श्रीगणेश तत्व
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ॐ गणानां त्वा गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम्।ज्येष्ठराजं ब्रहणां ब्रहणस्पत आ नः शृण्वन्नूतिभिः सीद सादनम्। (ऋग्वेद 2/23/1)
भारतीय आध्यात्मिक पौराणिक कथाओं का जो लोग छद्म विज्ञानिक/भौतिक दृष्टि से अनुसंधान करना चाहते हैं वह उसके मूल,उसकी आत्मा को कदापि छू नहीं सकते हैं।यहां तो पतॆ दर पर्त कथाएं एक दूसरे से इस अद्भुत कारीगरी से जुड़ी हैं कि इसकी पड़ताल करते हुए आप हतप्रभ रह जाएं।ऐसा ही एक चरित्र है श्री गणेश का।यानि उस देव का जो गणों का मुखिया या कहें ईश्वर है। गण का अर्थ है वर्ग,समूह,समुदाय।सो वह उनका नेता है।यूँ गण-देवों में 8 वसु,11 रुद्र, 12 आदित्य की गणना होती है। अतः वह उनका भी नेतृत्व करता है।गण को सेना की टुकड़ी से भी जोड़ा जाता है।जिसमें 27 हाथी, 27 रथ,81 घोड़ी और 135 की संख्या में पैदल सेना होती है।अतः गणेश इस लिहाज से सेनाध्यक्ष भी हैं।ज्योतिष की बात करें तो उसमें 3 गण हैं।देव,मनुष्य व राक्षस। इन तीनों पर उसकी सत्ता ईश्वर होने से निर्विवाद है।छंद शास्त्र में मगण,नगण,भगण, यगण,जगण,रगड़,सगड़ ये 8 गण हैं।और वैसे अक्षरों को भी गण कहते हैं।इससे अक्षरों, शब्दों पर उनका स्वामित्व उन्हें विद्या -बुद्धि का परमपूज्य आचार्य बनाता है तो आश्चर्य कैसा।श्रीगणेश को शिव और शिवा का पुत्र कहा जाता है।अर्थात श्रद्धा रूपी पार्वती और विश्वास रूपी शिव के मिलन से ही विवेक रूपी गणेश की उत्पत्ति होती है।लेकिन उनकी मान्यता ऐसी हो जाती है कि वह विराट होकर प्रथम पूज्य हो जाते हैं।शिव-पार्वती अपने विवाह में उनका आवाहन, अभिनंदन कर उनसे मंगल याचना करते हैं।यह बड़ी अद्भुत बात है।श्रीरामचरितमानस मैं तुलसीदास जी लिखते हैं :
"मुनि अनुसासन गनपतिहि पूजेउ संभू भवानी। कोउ सुनि संसय करै जनि सुर अनादि जियँ जानि।।"(दोहा 1/100)
अब जो ये गणेश प्रथम पूज्य बने तो वह शिव पार्वती के सम्मुख, उनकी वजह से बने। यह और आश्चर्य में डालने वाली कथा है।जिसके अनुसार एक बार देवताओं में किसे अग्रणी मान कर पूजा का विधान हो,इस हेतु एक प्रतियोगिता रखी गई।इसमें पृथ्वी का अतिशीघ्र चक्कर लगाने वाले को विजेता होना था।सो सभी अपने-अपने वाहनों मेंचले।तो वहीं गणेश ने अपने माता-पिता की ही परिक्रमा कर ली।जो आज भी "गणेश- परिक्रमा" से लोगों में खूब प्रसिद्ध है।क्योंकि इस माध्यम से उन्होंने यह संदेश भी दे दिया कि जो हमारा मूल आधार है वही वस्तुतः हमारा जगत है।उसे हमें कदापि नहीं भूलना चाहिए।इस तरह की विशिष्ट बुद्धि- विवेक की क्षमता ने उन्हें प्रथम पूज्य बना दिया।दैनिक जीवन में जो हम पंचदेव पूजन करते हैं उनमें शिव,नारायण,सूर्य,देवी के साथ पूजित होने वाले गणेश अग्रणी हैं।पंच पूजन और कुछ नहीं वस्तुतः पंच तत्वों का ही पूजन है। जिनसे हमारा निर्माण हुआ है। इसमें शिव: पृथ्वी तत्व के कारक हैं।उनका पार्थिव पूजा द्वारा विधान है।विष्णु: आकाश तत्व हैं। शब्दों द्वारा उनका विधान है।देवी: अग्नि तत्व होने से हवन कुंड का विधान हैं।सूर्य: वायु तत्व होने से प्राण का विधान हैं।और गणेश: जल तत्व होने से उनका प्रथम पूज्य का विधान हैं क्योंकि सृष्टि को अंकुरित करने का काम जल का ही है।ईश्वर "एकोअहम द्वितीयो नास्ति"से जब "बहुस्यामि" के रूप में अवतरण लेता है तो गणेश जी की छवि हमारी मन-मस्तिष्क में छा जाती है।वह अपने मूल रूप में ओंकार स्वरूप हैं।जो सत, रज, तम गुणों के साथ अपनी अनुस्वार(बिन्दी) से ब्रह्म का प्रकृटिकरण करते हैं।यूँ जो स्वस्तिक 卐 का चिह्न है उसे भी चतुर्भुजी गणेश/ओंकार माने जाने से उसका भी अंकन शुभता सूचक माना जाता है। अब कला की दृष्टि से देखें तो आप पाएंगे कि कलाकारों/चित्रकारों ने उनके ओंकार/गणेश स्वरूप को इतने बहुस्यामि,नानाविध रूपों में प्रस्तुत किया है कि मुझे संदेह है कि इतने अधिक रूप में किसी अन्य देव का चित्रण हुआ भी होगा कि नहीं।मजे की बात है कि उनके सभी रूप एक से बढ़कर एक नयनाभिराम, जादू जगाते एक नई गति,एक नए रूप को लेकर रिकॉर्ड बनाते हैं।लगता है संभवतः तूलिका भी उनके अंगविन्यास से अपने को कृतकृत्य करना चाहती है।श्री गणेश की दो पत्नियाँ रिद्धि और सिद्धि बताई जाती हैं।जो व्यक्ति में विवेक होने पर रिद्धि-सिद्धि के रूप में फल-यश को देने चँवर डुलाते आ ही जाती हैं।गणेशजी चतुर्भुज हैं।एक में पाश और एक में अंकुश है जो क्रमशः तमोगुण व रजोगुण का समूलोच्छेदन करता है।वहीं एक हाथ अभय मुद्रादायी हो भविष्य के प्रति कल्याणकारी आश्वस्ति देती है।गणेशजी के चौथे हाथ में मोदक है।जो इस सबके अर्थात रजोगुण, तमोगुण के नाश व कल्याण की आश्वस्ति के पश्चात मोद अर्थात आनंद का संचार करता है।गणेश जी एक कथा उनके गजमुख होने की भी है। जिसके अनुसार वे शिव को मां पार्वती की आज्ञा के चलते घर में प्रवेश करने से रोकते हैं।इसकी वजह से शिव द्वारा उनका शिरोच्छेदन किया जाता है।बाद में शिव ही उनके सिर पर हाथी का सिर लगाते हैं।जो यह भी दर्शाता है कि पिता अपने पुत्र में अहंकार के बीज उगते देख हाथी जैसे शांत जीव के मस्तिष्क का उनमें रोपण कर सद्गुणों की राह पर उन्मुख करता है।गणेश की कमर में जो सर्प लिपटा दिखाया जाता है वह उनकी कुंडलिनी शक्ति पर स्वामित्व को बताता है।यहां भी कुंडलिनी शक्ति का प्रथम चक्र जो मूलाधार (गुदास्थान) में स्थित है और त्रिकोणाकार रक्तवर्णी है उनको समर्पित है। यद्यपि वे ईश्वर हैं तो यह कहना कि वे ज्योतिषीय मान्यता अनुसार नौ ग्रहों में से एक ग्रह केतु के कारक हैं अटपटा सा लगता है।लेकिन इसकी विवेचना पूर्व में की जा चुकी है।गीता में श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं "आदित्यानमहं विष्णुर्ज्योतिषांरविरंश्रुमान"
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तो यह सब प्रतीक रूप में सिर्फ समझाने को है।श्रीरामचरितमानस में तुलसीदासजी लिखते हैं: "जथा अनेक बेष धरि नृत्य करइ नट कोइ।सोइ सोइ भाव देखावइ आपुन होइ न सोइ।।"(दोहा:7/72ख)तो जब नट अलग -अलग रूप दिखा सकता है तो वह तो नटराज अर्थात ईश्वर है। दरअसल केतु ग्रह ध्वजा(अर्थात विजय),धर्म,पूर्व जन्मों के शुभ-अशुभ कर्मों का कारक है।अतः कह सकते हैं कि गणेशजी धर्म के ध्वजा वाहक हैं और पूर्व जन्मों के अशुभ कर्मों का क्षय कर धर्मानुकूल नव मंगल कर्मों का सृजन कराने में सक्षम हैं।इसके चलते उनकी प्रथम स्थापना से, किसी भी कार्य में धर्म-ध्वजा का रोपण होने से,सद् प्रवृतियों का निवास होने से,धर्मयुक्त उस कार्य की मजबूत नींव पड़ने से,उस कार्य का भव्यतापूणॆ निष्पादन हो जाता है।वैसे मुझे उन में बुध ग्रह का भी बिम्ब दिखता है।बुध ग्रह के अनेक प्रतीक चिन्ह उनमें नजर आते हैं। मसलन हास्य-व्यंग की निपुणता,कलाओं के महारथी,लेखन (व्यास जी से सुनकर पुराण,महाभारत को लिखने वाले)त्वरित बुद्धि,विज्ञानमय सोच, तर्क- शक्ति, प्रतिभा सम्पन्न, नव-सृजनकारी, खानपान का शौक आदि-आदि।उनका स्थूलकाय शरीर विशेषतः उभरी हुई तोंद, छोटी आंखें जो बारीक से बारीक वस्तुओं को देख लेती हैं वहीं अपने विवेक के कारण छुद्र बातों/दोषों को नजरअंदाज कर देती हैं।उनके सूर्पाकार कान सूप के ही समान "सार-सार को गहि रहे थोथा देई उड़ाय की"नीति पर चलते हैं।उनका वाहन मूषक जो बड़ा ही चंचल,चतुर जीव माना जाता है लेकिन दिखने में दुबला-पतला,कृशकाय सा होता है उस पर विराजमान गणेश जी का भारी-भरकम शरीर हास्य रस का सहज ही प्रवाह करते हुए दिखता है।लेकिन असल में वह मूषक हमारी इंद्रियों की चंचल प्रवृतियों का प्रतीक है जिसे गणेशजी अपने विवेक और अंकुश से नियंत्रित करने का संदेश देते हैं।अभी जब मैं मदुरई/मदुरै गया था तो वहां मीनाक्षी देवी(पार्वती) के सम्मुख विराजमान विशालकाय श्री गणेश जी की प्रतिमा को प्रणाम करने लगा तो पंडित ने कानों को हाथों से(क्राॅस करते हुए) पकड़ कर उठ्ठक-बैठक लगाते हुए उनके शीघ्र प्रसन्न होने की बात कही और बताया कि जब दुष्टों के मर्दन हेतु सुदर्शन चक्र की प्रार्थना श्री गणेश से की थी।इससे ही मुझे स्मरण हुआ कि गायक,वादक आदि लोग जब भी कभी अपने गुरु का स्मरण करते हैं तो कान को हाथ से छूते हैं।इस प्रकार वो अपने गुरु की वहाँ उपस्थिति मानते हुए उन्हें प्रणाम करते हैं।वैसे कहीं हाल ही मैंने ये भी पढा था कि पुराने समय में जो कान पकड़ कर उठ्ठक-बैठक की सजा छात्रों को दी जाती थी वो उनके मस्तिष्क/बुद्धि को तीव्र करती थी।विदेशों में इस तरह की कसरत ऐसे लाभ को देखते हुए पर्याप्त लोकप्रिय हो रही है।सो इतना स्मरण आते ही मैंने इसी,"दोर्भिकर्ण- मुद्रा "में फटाफट उनके द्वादश नामों : ॐ सुमुखाय नमः।ॐ एकदन्ताय नमः।ॐकपिलाय नमः।ॐ गजकर्णकाय नमः।ॐ लम्बोदराय नमः।ॐ विकटाय नमः।ॐ विघ्नाशाय नमः।ॐविनायकाय नमः।ॐ धूम्रकेतवे नमः।ॐगणाध्यक्षाय नमः।ॐभालचन्द्राय नमः।ॐगजाननाय नमः। का उच्चारण करते हुए प्रणाम किया।इस श्रद्धा और विश्वास के साथ कि विश्व में यथाशीघ्र सद्प्रवृतियों का उभार हो और विध्नकारी आसुरी शक्तियों का समूल विनाश हो जिससे मंगलमूर्ति श्रीगणेश जी का हमारे जीवन में साक्षात प्रकाट्य हो।
।।जय श्री गणेश।।
@नलिन#तारकेश