देह थी जो कभी कंचन,नवनीत सी मेरी।
भर गई है सारी झुर्रियों से आज मेरी।।
न जाने कितने लेप,उबटन से थी सजाई।
परिणाम उसका देख मुझे आती रूलाई।।
पर सत्य तो सत्य ही है,चाहे हो निर्मम अति। जीवन गति तो सदा से,निर्बाध यूं ही बही।।
फिर भला क्यों दुःख,पीड़ा,निराशा है उपजती।
देह को ही अपनी अस्मिता पूणॆतः मानती।।
"तारकेश"ने दिए जब हमें मन,आत्मा और बुद्धि।
जिनमें छुपी है संभावनाओं की अपार शक्ति।।
स्थूल पर ना रुकें,आरूढ हों अब सोपान-प्रगति।
मन के विराट विस्तार से,बने हम आत्मक्षेत्री।।
हम तो चिरकाल से ही रहे,सदा ईश-अंशी।
पहचानने को चाहिए,बस स्वतः दृष्टि थोड़ी।।
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