मचलती आंख पतंगों सी पेंच भिड़ा रही है। दुनिया से मगर देखो प्यार छुपा रही है।।
खुले नीले आकाश है यूं तो चौथ का चांद। चांद पूनम का मगर साजन को दिखा रही है।।
जिस्म तो एक उम्र बाद कर लेता है सबसे पर्दा।
ये तसुव्वरे रूह है जो हमेशा रिझा रही है।।
बियाबान मन के जंगल में दौड़ती-हांफती। ये तमन्ना हजार हर दिन हमें मिटा रही है।।
नूर-ए-इलाही जो हमारे भीतर बस रहा है।
इनायत"उस्ताद"की उससे मिला रही है।।
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