सूरज की तरह जलता रहा हूं हर रोज।
बाॅटता रहा मगर मैं रौशनी हर रोज।।
हार कर भी हार कहां मानता हूं।
देता हूं खुद को दिलासा हर रोज।।
भूल गया गिनती याद नहीं अब तो।
ज़ख्म इतने मिले हैं मुझे हर रोज।।
बढ़ते कद से उसके खिसियानी बिल्ली बने हैं सब।
अंगूर है खट्टा कह बार-बार कोस रहे हर रोज।।
लहरों की तरह चट्टानों पर पटका है सिर कई बार।
रास्ता मिला है मुझे तब कहीं जाकर सपाट हर रोज।।
जाने वो भला करता है क्यों रहम-ओ- करम इतना।
हैरान यही सोच करता रहा उसे सजदा हर रोज।।
लो ऑखिर आ ही गए अपने शहर आज तो।
आ रहा याद-ए-वतन तेरा मगर हर रोज।।
लखनऊ की शाम में फ्रांस की रंगीनियत घोलकर।
होगी"उस्ताद"अब तो सुबह-शाम चीयसॆ हर रोज।।
@नलिन #उस्ताद
No comments:
Post a Comment