एक रोज सलाम बजाने जो हम न घर गए
आँखों की किरकिरी हुज़ूर की बन गए।
गुरुर पे अपने उनको बड़ा गुरुर था
हमें इल्म कहाँ,गाज़ हमपे गिरा गए।
लोकतंत्र के नाम पर तानाशाही नवाब की
हमारी जीतोड़ मेहनत पर पानी फिरा गए।
योगियों से उठवाते हैं पालकी अपनी भोगी
उस पर तुर्रा चाल हमारी दोषी बता गए।
कहीं मसाज,तो कहीं एक्यूप्रेशर की है तैयारी
सवारी निकली,सब सजदे में झुकने लग गए।
हरी दूब हूँ मैं,असर न होगा कुछ भी मुझे
सूखे दरख़्त खैर मना,तूफाँ सामने आ गए।
साजिन्दे जवां थे,साज़ भी दुरस्त थे
राग मगर "उस्ताद"के खटराग हो गए।
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