मगर कभी पीठ भी हूँ अपनी ठोकता।
दरअसल जिंदगी को तो गढ़ना पड़ता।
कुम्हार की तरह ही,उसके घड़े जैसा।
कभी एक तरफ देकर हाथ का सहारा।
वहीं दूसरी तरफ हाथ से होता ठोकना।
इसी प्रक्रिया से ही अनवरत,वो ले सकता।
सुन्दर,सुनहरा घट का भव्य रूप अपना।
फिर तो भवसागर,वो जरा भी नहीं गलता।
मृद-भांड की यह देह,तैरती बनकर नौका।
इसतरह सहजता से,लो हो जाता,पार बेड़ा।
फिर उस पार जा,या यहीं नलिन सा खिलता।
सृष्टि-कीच में भी निर्मल,निष्पाप बना रहता।
निरन्तर सभी को पिलाता,जिलाता रहता।
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