उम्र हो चली अब तो सब कुछ हूँ भूल जाता।
फसानों का मगर तेरी याद हर लम्हा पुराना।।
रास्तों की भीड़ में गुम हो रहा अब तो हर आदमी।
दौर कहाँ बाकी रहा जब होता था मौसम सुहाना।।
रूठ कर गए थे तुम बेवजह बात का बतंगड़ बना कर।
चलो रब को बदनाम करें वो नहीं चाहता था मिलाना।।
यूँ तो हर अंधेरी रात की एक सुबह होती ही है सुहानी।
मगर शायद खुर्शीद भी नशे में भटका अपना ठिकाना।।
तेरे शहर को कर अलविदा चल दिए हैं "उस्ताद" हम।
देखते हैं लिखा है क्या नसीब में अभी और पछताना।।
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