शिव के डमरू से जब अक्षर उदघोषित हुए ।
पाणिनि अष्टाध्यायी ने रहस्य अनावृत किए।
मगर तब भी क्या मौन की व्याख्या हम कर सकते।।
सप्तस्वर,लय,ताल के आरोह,अवरोह में जब सृष्टि गूंजे।दिगदिगन्त अपनी मृदुल आत्मीयता से हृदय-घट भरे।
झूमने लगे सब चर-अचर श्रवणानन्द से जब सम लगे।
मगर तब भी क्या मौन की व्याख्या हम कर सकते।।
हास्य,वीर,करूण,रौद्र,श्रृंगार,शांत आदि नवरस सारे।
आकर उपयुक्त समय अनगिनत मनोभावों से भरते।
हम भी दर्पण बन एक दूसरे को देख कुछ तो समझते।
मगर तब भी क्या मौन की व्याख्या हम कर सकते।।
सगुण,निर्गुण से परे जो भी साधक नाम-साधना करे।
वो तो मूक हो बस अप्रतिम ब्रह्मानंद का रसपान करे।
वाणी कुंठित हो जाए और वागेश्र्वरी भी हतप्रभ दिखे।
No comments:
Post a Comment