ऋतुराज वसंत
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ऋतुराज वसंत ने विहंसते हुए,मृदुल पग अपने जब धरे।सृष्टि संपूर्ण में अलौकिक दिव्यस्वर,पोर-पोर रिसने लगे।।
चैत्र-वैशाख मास-द्वय त्याग लोक-लाज,परस्पर गले मिलने लगे।
प्रकृति नख-शिख सोलह सिंगार को,पुष्प-गुच्छ मचलते दिखे।।
अद्भुत,अप्रतिम नववधू सा,मिल रूप सब संवारने लगे। मदनमोहन संग राधा और गोप-गोपी,रास-रंग डूबते रहे।।
जड़-चेतन हर कोई सुध-बुध बिसार अपनी,झूमने-गाने लगे।
नीलगगन से निहार रमणीय-दृश्य,देव-गंधर्व भी आने लगे।।
उर-सरोवर जन-जन निर्मल हुआ तो,शतदल "नलिन" खिलने लगे ।
स्वर्ग के अनूठे सौंदर्य-विलास भी धरा पर आज सारे फीके पड़े।।