दांत मेरे जुबान मेरी ही काटने लगे।
खा के थाली में छेद लोग करने लगे।।
आंख कान मुंह बंद है गांधी के बंदरों के।
कहो कब कहाँ ये नामुराद सच बोलने लगे।।
गंगा जमुनी तहजीब कागजी बातें रह गई।
चलो शेखचिल्लियों के सपने तो टूटने लगे।।
अमन-चैन का ठेका कब तलक ढोयेंगे हम।
लातों के भूत कब तलक बातों से मानने लगे।।
भेड़ियों की बंद हुई जो हुकूमत मैं बंदरबांट।
गरीब,नासमझों को निवाला ये बनाने लगे।।
फैसला होना चाहिए"उस्ताद"अब तो आर पार का।
बढ़े कदम जो सही राह कहां अब पीछे हटने लगे।।
@नलिन#उस्ताद
No comments:
Post a Comment