जिस शाखा में कूद-कूद कर उछल रहे
बौराए मर्कट उस शाखा को ही तोड़ रहे।
बुद्धिजीवी,सेक्युलर का हरदम छद्म वेष धरे
भारत में खाते-पीते,नसें वतन की काट रहे।
वोट-बैंक की खातिर नेता ये मंझे हुए
फसल घृणा-द्वेष की हैं समाज रोप रहे।
राष्ट्रप्रेम का नित मिथ्या नाटक रचते
सर से पाँव घोटालोँ में खूब सने रहे।
दुनिया थू-थू करती तो बला से किया करे
गद्दारों संग रस ले मुर्ग-मुस्सलम तोड़ रहे।
मुद्दे भटका,उल्लू अपना सीधा करते
जैसे-तैसे गठरी इनकी बस भरी रहे।
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