मैं भटक रहा हूँ साईं
जाने कब,किस युग से
वही मल लपेटे,इतराते।
पर कुछ समझ न आता
तेरे भला होते हुए
कब तक भटकूंगा मैं ऐसे
गली-गली हर कूचे।
जाने कब तू अपने हाथों से
मेरा मन भवन श्रृंगार करेगा
रगड़-रगड़,मैल छुड़ा कर
बाल-काढ़,स्नान करा देगा।
नए धवल वस्त्र पहना
नजर का टीका लगा देगा
तो फिर मैं बन जाऊंगा
सुंदर,सुघड़ सलोना।
तब तू मुख-चुम्बन लेकर मेरा
हँसते हुए उठायेगा
और अपनी छाती लगा मुझे
अमृत-पान करायेगा।
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