अरमानों के सूखे पत्ते ही रह गए हम तो ता-उम्र झाड़ते।
दिले-आंगन में फल तो गिरे नहीं दरख़्त से यार अपने।।
हमारे ही करम से बनेंगी-बिगड़ेंगी लकीरें ये हाथ की। कल जो बोई थी फसल आज वही तो हम हैं काटते।।
कौन कितने पानी में है सारे कच्चा-चिट्ठे पता हैं यारब। हौंसला ये अलग है कि तो भी हम अंजान हैं बने रहते।।
जमीन पर अच्छे से चलने का थोड़ा हुनर भी सिखाइए। चांद सितारे तो छू ही लेंगे काबिल जो है आज के बच्चे।।
लिखाता है वो हाथ पकड़ जब चाहे गाहे-बगाहे हमसे। "उस्ताद" तभी तो ये अशआर कमबख्त याद नहीं रहते।।
नलिनतारकेश @उस्ताद
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