हवाओं के नाम लिख दी है मैंने वसीयत अपनी।
इठला के नसीब पर महकती तभी तो फकत अपनी।।
फूल,दरख्त,जमीं,आसमां कुल जमा यानी कायनात के।
मिजाज हैं बड़े अलहदा जो देखी मुझमें तबीयत अपनी।।
हर किसी को यूं तो बख्शी परवरदिगार ने अजीम शख्सियत।
बहुत कम हैं वो लोग जो जानते हैं नायाब कीमत अपनी ।।
लाख लगाए मुखौटे या करे वो गजब की अदाकारी।
दरअसल जानता तो है भीतर से सब हकीकत अपनी।।
चाहे कसमें खा लें कितनी भी रंजोगम साथ निभाने की।
मानो या ना मानो काम तो आती है बस इबादत अपनी।।
वही रंग,वही शोखी फकीराना बहती अल्हड़ सी मस्ती।
"उस्ताद"अब तो पक गई उमर कहां बदलेगी आदत अपनी।।
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