राम सकल नामन ते अधिका
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राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरी द्वार। तुलसी भीतर बाहरेहुं जो चाहसि उजियार।।
श्री राम अखंड मंडलाकार परम ब्रह्म, परमतत्व,संपूर्ण ब्रह्मांड के कर्ता-धर्ता,निर्गुण और सगुण ईश्वरीय सत्ता के एकमात्र शक्ति स्रोत हैं। इस शब्द का प्रथम उल्लेख ऋग्वेद में रमणीय पुत्र के अर्थ में मिलता है।यूं राम शब्द में "र"अक्षर अग्नि,"आ"-सूर्य और "म"- चंद्र का प्रतिनिधित्व करता है ।अर्थात इस शब्द में तेजस्विता,प्रकाशकता और शीतलता समाहित है।अग्नि जहां परम सत्य या ज्ञान की पूर्णता का स्वरुप है और सूर्य प्राण तत्व या आत्मतत्व का तो चंद्र मानस या मन का कारक है।अतः कहा जा सकता है कि राम शब्द ऐसा पावन पुनीत नाम है जो हमारे मन में आत्मतत्व को सत्य रूप में पहचानने की ज्ञान दृष्टि उत्पन्न करता है।शिव के साथ संवाद में अपने कौतुहल को मिटाने के उद्देश्य से पार्वती उनसे पूछती है कि परम ब्रह्म पुरुष राम और दशरथ पुत्र राम क्या एक ही हैं? तो शिव को इस प्रश्न पर ही आपत्ति है और यह जिज्ञासा नादानी लगती है क्योंकि ईश्वर के साकार रूप में प्रकट होने वाला और निर्गुण निराकार रूप में अपनी शक्ति से जुड़ चेतन को आधार देने वाला तत्व वस्तुतः एकमात्र "राम"ही है ।उसके नाम,रूप,आकार भिन्न हो सकते हैं परंतु वह अजर-अमर,अविनाशी ब्रह्म जो योगियों के सहस्त्रार में खिलता है, भक्त के हृदय में खिलखिलता है, ज्ञानियों के मस्तिष्क का ताप शीतल कर तृप्त करता है, वैरागी की आंखों में नूर बन समाया रहता है, नास्तिक के अहम में अपना परिचय देता है, वह भेद बुद्धि से भले ही अलग प्रतीत होता हो पर मुलतः वह एक ही है और यह वही है जिसे हम "राम"कहते हैं।
शास्त्र वचन है "रामो विग्रहवान धर्माः" अर्थात राम साक्षात धर्म हैं और "धारणेत इति धर्मः"जो धारण करता है जो आधार बनता है वही धर्म है।इस कारण से नीति,धर्म और मर्यादा या कहें शक्ति,शील और सौंदयॆ इसकी जो मोक्षदायिनी त्रिवेणी है उसका ही संगम है "रामत्व"।सो श्रीरामचरितमानस के धर्म,अर्थ,काम,मोक्ष इन 4 घाटों पर होने वाली सप्त सोपान युक्त रामकथा का हर एक के जीवन में अपनी-अपनी रुचि अनुसार साकार, निराकार आदि रूपों में तर्पण,माजॆन,स्नान, काग स्नान कुछ भी हो सभी का अपना अलग आलौकिक महत्व है।
ऐसे पतित पावन राम नाम का उच्चारण,मनन निदिध्यासन,स्मरण यदि श्रद्धापूवॆक, धैर्य रखते हुए किया जा सके तो व्यक्ति के जीवन की सार्थकता सिद्ध हो जाएगी।वैसे तो तुलसीदासजी "भायं कुभायं अनख आलसहूं।नाम जपत मंगल दिसि दसहूं" की बात दावे के साथ कहते हैं और यह बात शिव के प्रामाणिक वचन में भी निहित है।दरअसल श्रीरामचरितमानस शिव के हृदय आंगन में ब्रह्मा के विविध कौतुक की ही झांकी है जो उन्होंने लोक कल्याण हेतु प्रगट की है। यही कारण है कि मरा,मरा उल्टा जाप करने के बाद भी वाल्मीकि संसार में अपनी निर्मल यशगाथा छोड़ गए।
"राम भगत जग चारि प्रकारा" यानी जगत में चार प्रकार के राम भक्त हैं। 1/ अर्थार्थी (अपनी कामनाओं की पूर्ति हेतु)2/ आतॆ (दुख कष्टों के निवारणर्थ)3/ जिज्ञासु व 4/ज्ञानी लेकिन "चहूं चतुर कहुं नाम आधारा" के अनुसार चारों को एक मात्र राम नाम का ही आश्रय प्रिय है।वैसे भी सतयुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञ,द्वापर में पूजन का महत्व विशेष रूप में बताया गया है लेकिन कलयुग तो जैसे अधर्म का,अनाचरण का,दुर्भाग्य-दुख का साक्षात स्वरूप है।जिसमें विधि-विधान,जप- तप कुछ करते ही नहीं बनता है अब ऐसे कठिन विषम काल का क्या समाधान हो सो आचार्यों की प्रज्ञा बुद्धि ने निर्णय लिया "नाम कामतरु काल कराला, सुमिरत समन सकल जग जाला"। यानी कि ऐसे तमसाच्छादित वातावरण में भी हमें नाम का ही आधार लेना चाहिए क्योंकि वह कल्पवृक्ष के सदृश हमारी समस्त पीड़ाओं को जड़ से नष्ट करने की सामर्थ्य रखता है।अतः "राम-राम कहि जे जमुहाई तिन्हहि न पाप-पुंज समुहाई"के वचन को झूठा ना समझकर सांस-सांस में राम का ही स्मरण,मनन होते रहना चाहिए। जब हम नाम का स्मरण करते हैं तो हमारे सामने उसका स्वरूप स्पष्ट होने लगता है।जैसे बछड़े को देखकर गाय के स्तनों में दूध उतर आता है यह कुछ वैसा ही है।निर्गुण, अगोचर रूप में हम उनकी पहचान करें या एक रूप,एक स्थान विशेष में उन्हें साकार करने का प्रयत्न करें वह तो"जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी"के तहत स्वच्छ दर्पण में जैसा देखना चाहो या कोरे कागज में जैसा लिखना चाहो उस में उतर आता है।
नौ प्रकार की नवधा भक्ति में दूसरी प्रकार की भक्ति - राम कथा के प्रति प्रेम,चौथी भक्ति- राम के गुणों का सरल मन से गान व पांचवी भक्त्ति- राम मंत्र का दृढ़ विश्वास से जाप का उल्लेख किया गया है।यद्यपि सार रूप में देखा जाए तो इन तीनों प्रकार की भक्ति में कुल मिलाकर नाम महिमा ही मुखर होती दिखती है।इसलिए ही "रामहि सुमिरेहु गायहु रामहि संतत सुनेउ राम गुन ग्रामहि" के द्वारा अपने जीवन को सफल बनाने का प्रयत्न निरंतर करने के उद्देश्य से राम तत्व का मनन, चिंतन,गायन,श्रवण प्रतिक्षण करते रहना चाहिए क्योंकि "बड़े भाग मानुष तन पावा" की सार्थकता तभी सिद्ध होगी।
"रामहि केवल प्रेम पियारा"के आधार पर कहें तो उस परम सत्ता को मात्र प्रेम द्वारा ही एकमात्र रिझा कर "करतल होगी पदारथ चारि"की स्थिति प्राप्त की जा सकती है।नाम जप पर अटूट आस्था हो जाने पर अपने छोटे बड़े किसी भी काम के लिए हमें किसी का आश्रित,किसी की सहायता,किसी के अनुग्रह की दरकार नहीं रह जाती है।हम तो सीधे- सीधे परमात्मा में अपनी आत्मा के "लय"होने के साक्षी भाव में आ जाते हैं और "जापर कृपा राम की होई,तापर कृपा करें सब कोई"। ऐसे कृपासिंधु करुणानिधान के कृपापात्र हो जाने पर सृष्टि का रोम-रोम पुलकित हो हम पर अपना आशीष,स्नेह,अपनत्व उड़ेलता रहता है क्योंकि संपूर्ण ब्रह्मांड उसकी ही तो देह है।
विश्वरूप रघुवंश मनि करहु बचन बिस्वासू। लोक कल्पना बेद कर अंग अंग प्रति जासू।।
तो कुल मिलाकर आशय यह है की राम-राम से शुरू होने वाली मानव जीवन यात्रा की "राम कहानी""राम नाम सत्य है"पर विश्राम लेती है। और यही अकाट्य सत्य आत्मा- परमात्मा के संबंधों का आधारभूत लेखा-जोखा है।
।।श्री राम: शरणं मम।।
@नलिन "तारकेश"