ढाई आखर प्रेम का
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प्यार,इश्क,लगन,प्रीति,रोमांस,चाहत जैसे न जाने कितने अनगिनत नामों वाला यह प्रेम अपनी आशिकी की महक से जीवन में हजारों हजारों रंगों की फुहार कर हमको तरबतर भिगो जाता है।हम ठगे से रह जाते हैं। उसके जादुई पाश में क्या कुछ ऐसा है जो हमें अपना सर्वस्व उसकी चौखट पर न्योछावर कर देने को मजबूर कर देता है। बुल्ले शाह, रसखान,तुलसी से लेकर हीर रांझा,रोमियो-जूलियट तक मां बेटे से लेकर भाई बहन तक पेड़ पौधों से लेकर पशु पक्षियों तक प्रेम के ढाई आखर में जितने इतिहास रचे हैं शायद ही अन्य किसी शब्द ने रचे हों। मानव जैसे तीक्ष्ण बुद्धिजीवी को कितना सम्मोहित इतना बावला भला और किस शब्द ने कभी किया है?
दरअसल प्रेम की बात ही निराली है। उसकी पोर-पोर से जो सुधारस छलछलाता है उसका तिलस्म ही ऐसा होता है की कड़वी नीम भी मीठी हो जाती है। राजा रंक होने को इतना बेकरार इतना उन्मत हो जाता है कि जरा सा आगा-पीछा सोचने को भी तैयार नहीं रहता।
मौत के मुंह में वह ऐसी छलांग लगाता है मानो स्वर्ग की सीढ़ियां जीते जी चढ रहा हो। इतना विश्वास इतना आनंद इतना उत्साह असंभव को संभव कर देने की इतनी उत्कंठा प्रेम की निश्छल धारा में ही दिखाई देती है। अन्यत्र कहीं नहीं।इसके लिए भाषा धर्म जात पात अमीर-गरीब जैसी संकुचित दृष्टि में बेमानी होती है।
कहा जाता है मुहब्बत की जुबान नहीं होती है। यह तो दिलों की धड़कनों में धड़कती है। गालों में सुर्ख लाली बन चमकती है तो निगाहों की चमक में बरसती है। तभी तो बिहारी की नायिका लोगों की अच्छी खासी भीड़ में भी अपने प्रेमी से नैनन ही सों बात करने में सफल रहती है।फिर यह बिहारी की नायिका का ही सच नहीं सभी प्रेमियों का एक दूजे को चाहने वालों का सच है जो बेसाख्ता सामने आ ही जाता है।वैसे भी इश्क और मुश्क भला छुपाने से कहां छुपते हैं। जेठ की दोपहर में नंगे पांव अपने महबूब के दीदार के लिए दौड़ने वालों के पांव में पड़े छाले बैरन बन राज तो खोल देते हैं दिलों की चाहत का। लेकिन मजे की बात है कि दिल वालों को इस का खौफ कहां।उनकी बला से वो तो हर उठने वाली उंगली को अंगूठा दिखाते रहते हैं। यह इश्क जुनून का ही तो असर है कि देश की इबादत करने वाले हंसते-हंसते फांसी के तख्ते पर झूल जाते हैं। लैला मजनू हीर रांझा की चाहत के किस्से हर दिल अजीज हो जाते हैं। तो मीरा कि एक तारे पर अपने आराध्य की गली गली आराधना करते स्वर विषपान करके भी अजर-अमर हो जाते हैं।किसी शायर के नजरिए से
डूबना है तो इतने सुकून से डूबो की
आस पास की लहरों को भी पता न लगे।
तो प्यार के राही तो अपने आराध्य अपने प्रेमी की चाहत में ऐसे ही इतनी गहरी डुबकी लगाते हैं कि लोग दातों तले उंगलियां दबा लेते हैं।जरा सी क्षणभंगुर मानवीय दे प्यार के पारस की गलियों में आकर इतनी स्वणॆमयी आभा वाली फौलाद बन जाती है कि सब कुछ तिलस्म से बुना स्वप्न लगता है। जब कि वह होता है ठोस हकीकत।लेकिन यह सब इतना सरल होता नहीं है जितना कि लगता है।थरथराते होठों से या झट से आई लव यू जैसे शब्दों के उगल देने से या कि फिर एक किसी खास दिन हाथों में फ्रेंडशिप बैंड ग्रीटिंग कार्ड या अन्य ब्रांडेड गिफ्ट देने से प्यार का काजल आसमान से उतरकर आंखों में इंस्टेंट नहीं लग जाता है।इसके लिए तो साधना पड़ता है अपने शरीर मन मस्तिष्क के विश्वास को पूरे सब्र के साथ।अपने महबूब की हर आहट की खुशबू को सीने में ताउम्र खूबसूरती से सजाना पड़ता है।उसमें प्यार के हजारों रंगों से पच्चीकारी करनी पड़ती है।हर बार नए उत्साह नया उल्लास से जैसे एक जोहरी हीरे को तराशता है।प्यार की हिना तब कहीं जाकर हथेलियों में खिलकर भाग्य की रेखा को कीर्ति स्तंभ में बदल जाती है।ऐसे कीर्ति स्तंभ जो सोने चांदी हीरे जवाहरात से नहीं बल्कि प्रेम के अटूट संकल्प सूत्र से बना होता है।इसलिए यह अनमोल दिव्यता अपने में संजोए रखता है और युगों-युगों तक अपनी रोशनी से कायनात को रोशन करता रहता है। प्रेम व्यक्ति को उसकी जड़ों उसके मूल अस्तित्व से जोड़ता है।प्रेम क्योंकि संकुचित छिछली धारा नहीं है ये तो बंधनों सीमाओं से परे निर्मल धारा है अतः इसके अमृतपान से मानवता पुनर्जीवित हो फिर से सांसे भरने लगती है।संत इसलिए ही तो पूजनीय हो जाते हैं क्योंकि उनके पास एक मात्र करुणामय प्रेम की ही पूंजी होती है।बिना किसी भेदभाव के वो इसे मुक्त हस्त से लुटाते रहते हैं।दरअसल प्रेम ही है जो हमारे सृजन के लिए जिम्मेदार है।प्रेम है जो हमारा पालन पोषण करता है और प्रेम ही है जो अंत में हमें अपनी मृदुल गोद में लेकर अनंत में विलीन हो जाता है। वस्तुतः एक मात्र सच्चा प्रेम ही ईश्वर का सत्य स्वरूप है जो हमें वास्तविक लक्ष्य तक ले जाता है। सारे धर्मों का सार यही एक शब्द है इसकी मिठास तो वही जानता है जिसने एक बूंद भी इसे चख रखा है।यह आत्मा का आहार उसकी प्राण शक्ति है।सो शत-प्रतिशत खालिस है।इसमें कहीं बनावट नकल या आडंबरबाजी नहीं होती। ईश्वर क्योंकि कण कण में विराजमान है तो हमारा रिश्ता तो आत्मतत्व के चलते सबसे एक सा प्रेमपूर्ण ही होना चाहिए।इसी रुप में वह हृदय में मथा भी जाना चाहिए।इसलिए यदि हम किसी एक से भी अपने प्रेम की शुरूआत करते हैं चाहे थोड़े कम ऊंचे स्तर से भी तो भी आश्वस्त हुआ जा सकता है कि "बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी"।अंततः प्रेम का स्वरूप तो सार्वभौमिक ही है जो धीरे-धीरे परिपक्व होता हुआ अपने पूरे रंग में देर सबेर निखर कर आएगा ही आएगा।तो आइए हम प्रेम ऊष्मा से भरे आलिंगन में संपूर्ण कायनात को समाहित कर लें।इस स्तर पर कोई मैं नहीं रह पाता कोई दूसरा नहीं रह पाता। सभी मैं का ही विस्तार बन जाता है।
@नलिन #तारकेश
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