जाने कैसे कुछ लोग अजब सांचे में ढले होते हैं।
अपनी कौम की खातिर जो हर जुल्म सहते हैं।।
मुद्दतों बाद कभी-कभार अब लोग मिलते हैं।
फकत देखने एक दूजे को वो सब तरसते हैं।।
वो क्या दिन देखे थे गलबहियां डाले कभी हमने।
आज तो भीड़ में भी लोग बस तन्हा ही रहते हैं।।
जाने कैसा ये दौर आया जरा कहो तो यारों।
मिला पीठ से पीठ भी गुमशुदा लोग रहते हैं।।
गम,तकलीफें सारी आस्ताने में जिसके दम तोड़ दें। जमाने वाले तो उसी को असल "उस्ताद" कहते हैं।।
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