जहां भी बैठते हैं वहीं सजदा करते हैं।
भला हम कहां दर-दर भटकते हैं।।
न घर के रहे न घाट के अब कुछ लोग।
यूं ही ता उम्र बस त्रिशंकु से लटकते हैं।।
सिलसिला चला जो ग़ज़ल का बस चल पड़ा।
बस ख्यालों की दरिया हम चंद लफ्ज़ फेंकते हैं।।
कट के लिपटीं पतंगे कुछ तो जा दरख्तों में।
कुछ को लूटने की खातिर बच्चे मचलते हैं।।
तेरे आने की बात कही जो वसंत ने कानों में।
अब एक पल भी कहाँ हम पलक झपकते हैं।।
इश्क में तेरे ।फ़ना होने की तमन्ना तो है हमें बहुत।
देखिए मेहरबानी कब हम पर "उस्ताद" करते हैं।।
नलिन " उस्ताद "
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