कवि की ईश-वन्दना
☆☆☆¤ॐ¤☆☆☆
शब्द-वणॆ की समस्त सुंदर व्यंजना- अभिव्यंजना।
कविता में प्रकट होती कवि की वस्तुतः ईश-वंदना।।
भाव,चित्र,विषय की चाहे जैसी हो इंद्रधनुषी कल्पना।
कलम उसकी बन तूलिका उकेरती अनंत संभावना।।
स्वयं का भोगा-अभोगा मात्र नहीं अपितु सम्पूणॆ विश्व की चेतना।
कण-कण में व्याप्त गोचर-अगोचर,
अद्भुत-अनूठी महकती संवेदना।।
छलकती-बहकती,नाचती-कूदती,उमगती-ठुमकती कामना।
हर दिशा भाव वेग प्रवाहित,करती बार-बार ज्वार-भाटा का सामना।।
शिल्प पच्चीकारी,अलंकरण,वाग्विलास की दुस्सह साधना।
सरल,सहज,सुबोध प्रत्येक मन-प्राण को स्नेह से बुहारना।।
स्थूल,सूक्ष्म,कूट अनेक गुप्त-प्रकट,पुष्ट-अपुष्ट भावना।
मां वागीश्वरी श्रीचरण समर्पित नित्य अपनी लघु-दीर्घ याचना।।
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