कलई खोल भी दूं चाहे हर झूठी गिरह की।
मन तो मेरा भी है दाद दूं उसकी जिरह की।।
यूं ही नहीं परचम लहराया है ऊंची चोटियों पर।
पेशानी से टपकती बूंदे होंगी वजह फतह की।।
रात लंबी थी सो बमुश्किल जद्दोजहद बीती।
मिल कर मनाएं जश्न उम्मीद भरी सुबह की।।
हुआ तो हुआ दौर फासलों और बेवफाई का।
आओ करें बातें मगर अब अमन और सुलह की।।
खेल खेलें"उस्ताद"नया कुछ ऐसा कि हर कोई जीते।
छोड़ भी दो पुरानी कवायद ये मात और शह की।।
@नलिन#उस्ताद
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