सूरज की तरह रहा जलता हर रोज।
मगर रोशनी रहा बांटता हर रोज।।
दे रहा खुद को दिलासा बड़े प्यार से।
हार कर भी हार कहां मानता हर रोज।।
भूल गया गिनती याद ही नहीं अब तो।
जख्म इतने मिले कहां गिनता हर रोज।।बढते कद से उसके है खिसियाया गठबंधन।
अंगूर खट्टे बार-बार तभी कोसता हर रोज।।
लहरों सा चट्टानों पर पटका सिर बार-बार।
तब कहीं मिल रहा सपाट रास्ता हर रोज।।
काटता शाख पर बैठ जो उसी दरख्त को।
वो ही है उसे बेवजह कोसता हर रोज।।
दिन-रात बढाने में मशरूफ है देश का नाम।
देख छाती पर दुश्मनों के सांप लोटता हर रोज।।
"उस्ताद"पाले हैं इतने संपोले आस्तीन में।
भुगत रहे हैं ये उसकी ही तो खता हम हर रोज।।
@नलिन #उस्ताद
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