सृष्टि के वामांग भाग हेतु सादर प्रेषितः
☆☆☆ ☆☆☆☆☆☆☆☆☆☆
नारी जाने क्यों तुम बनना चाहती हो मुझ सी। निष्प्राण,जड़,ठूंठ,निर्दयी संवेदनहीन पुरुष सी।।
तुम तो हो लबालब उमंग भरी अक्षयपात्र सी। प्रेम,करुणा,ममत्व की सदा बहती नदी सी।।
आतंक,क्रोध, हिंसा कि कहां जगह तुम में जरा सी।
पीड़ा,दुःख,कष्ट हरती पल में संजीवनी बूटी सी।।
आंचल में पालती,पोषती जीव को देवी निस्वार्थ सी।
अंगुली पकड़कर सीखाती हो हर एक कदम चलना सद्गुरु सी।।
मेरे वामांग में धड़कती हो जो अजस्र सुधा रस सी।
देती चेतना को मेरी अनंत विस्तार नील गगन सी ।।
दुहिता बनकर आंगन में हो कूकती फिरती कोयल सी।
परिणीता हो देहरी चटक रंग भरती इंद्रधनुष सी।।
पुरुष तो है ईश्वर की एक रंगहीन,अनगढ कृति सी।
नवरस,सोलह श्रृंगारों से रची-बसी तुम प्रकृति सी।।
अनगिनत रंग,रूप,रिश्ते सींचती तुम सदा बरखा सी।
न होती कहीं तुम अगर,वसुंधरा ये होती नरक सी।।
@नलिन #तारकेश
No comments:
Post a Comment