रंग अनूठा इस दुनिया का प्यारा
हम को हर रोज निमंत्रण देता है।
लेकिन इसके जाल जो भी फंसता
वो जीवन भर बस रोता ही रहता है।
जीवन की इस आपाधापी में
मन तो बहुत कलपता है।
हाँ जब अपने से नैन मिलाता
तब वो खिलने लगता है।
जीवन घट जब भरने लगता है
स्वर भी बदलने लगता है।
जब जीवन घट पूरा भर जाता
स्वर मौन हुआ मिट जाता है।
जनम-जनम की रगड़ निखरता
मिटटी से फिर कंचन होता है।
उसमें तुझमें भेद कहाँ कुछ
#"तत्वमसि" तू हो जाता है।
(#तू वही हो जाता है )
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