1
शिरडी की पावन भूमि पर पैर रखता है जब भी कोई।
ततछन ही मिट जाती हैं चिंताएं उसकी जो हों कोई।।
2
समाधि की सीढ़ियां जब चढ़ेगा भक्त कोई भी।
मिटेंगी दुःख,दुर्भाग्य की रेखाएं उसकी सभी।।
3
देह छोड़ लगता अदृश्य सा हो गया हूँ मैं अभी।
भक्त रक्षार्थ लेकिन प्रगट हो जाऊंगा मैं कहीं भी।।
4
हर मनोकामना पूर्ण करेगी यह समाधि मेरी।
चलेगी-फिरेगी,दौड़ेगी भक्त रक्खो श्रद्धा-सबूरी।।
5
मैं तो नित्य जीवित हूँ तुम्हारे ही कल्याण के लिए
निज स्वभाव अनरूप तेरी आस पूरी करने के लिए।
6
कभी शरण आ के जो मांगे मुझसे तू कुछ भी,कहीं भी
करता हूँ हर आस पूरी,न हो तो मिलाओ उसे मुझे भी।।
7
भगत की भावना की कदर करता रहा हूँ सदा ही
तभी तो उसी के अनुरूप ढल जाता हूँ खुद से ही।
8
तेरा हर भार सदा से रहा है मुझ पर ओ पगले
वचन सत्य मेरा,भली-भांति इसको समझ ले।।
9
आओ आकर अपनी-अपनी झोली तुम सब भर लो
जैसा फल चाहो आकर वैसा तुम मुझसे नकद ले लो।।
10
तन-मन-वचन से करते जो हैं समर्पण मुझमें
उनका ऋण सदा ही सदा बना रहता है मुझमें।।
11
ऐसे भगत मुझे अतिप्रिय,सदा उर में वास हैं करते
मन-मंदिर में जिनके और नहीं कोई और हैं बसते।
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